कश्‍मीर की कशमकश : वजहें और ग़लतफ़हमियां

सुशोभित सक्तावत
घाटी में फिर ग़ुस्से का उबाल है और दो दर्जन से ज़्यादा लोग इसमें अपनी जान गंवा चुके हैं। हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद ये हालात निर्मित हुए हैं और "कश्मीर मसले" का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया है। भारत हमेशा की तरह कश्मीर को अपना अभि‍न्न अंग बता रहा है, पाकिस्तान उस पर भारत के नाजायज़ कब्ज़े की बात दोहरा रहा है, जवाब में भारत के द्वारा पीओके के हालात का हवाला दिया जा रहा है। लेकिन यह कश्मीर मसला है क्या। इसके लिए कश्मीर समस्या के परिप्रेक्ष्यों को समझना ज़रूरी है।
 
लगभग 69 साल पहले, 27 अक्‍टूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह ने कश्‍मीर के भारत में विलय के संधिपत्र पर हस्‍ताक्षर किए थे। इसके लिए उन्हें आधी रात को गहरी नींद से जगाया गया था। लेकिन जिस तरह से अन्‍य तत्‍कालीन "डेस्‍प्‍यूटेड टेरिटरीज़" (हैदराबाद, भोपाल, त्रावनकोर, जूनागढ़, जोधपुर : जी हां, आज विश्‍वास करना कठिन है, लेकिन सन् 47 में जोधपुर भी एक डेस्‍प्‍यूटेड टेरीटरी था और वह पाकिस्‍तान में विलय चाहता था) का भारत में पूर्ण और निर्विवाद विलय हुआ था, उस तरह से कश्‍मीर का नहीं हो सका था।
 
एक हिंदू राजा के अधीन मुस्लिम बहुल आबादी वाला यह सूबा (जूनागढ़ में ठीक इससे उलट स्थिति थी) भारत और पाकिस्तान दोनों में विलय को तैयार नहीं था। पुंछ इलाक़े के बाशिंदों का झुकाव पाकिस्तान की ओर था तो घाटी और जम्मू में प्रो-इंडियन नेशनल कांफ्रेंस का प्रभाव था और उसके नेता शेख़ अब्दुल्ला नेहरू के गहरे दोस्त थे।
 
जब कश्‍मीर पर क़बायलियों का हमला हुआ, तो बदहवासी के हालात में महाराजा हरिसिंह ने भारत सरकार से सैन्‍य मदद मांगी। स्‍वाभाविक रूप से सरकार ने कहा, मदद तभी मिलेगी, जब कश्‍मीर भारत में पूर्ण विलय को राज़ी होगा (सनद रहे, यह सुझाव नेहरू या पटेल का नहीं, बल्कि माउंटबेटन का था, जो तब डिफ़ेंस कमेटी ऑफ़ कैबिनेट के चेयरमैन थे)। महाराजा इसके लिए काफ़ी हद तक तैयार थे, लेकिन क्‍या अवाम तक उनका यह पैग़ाम पहुंचा? और शेख़ अब्‍दुल्‍ला इसे क्‍या समझ रहे थे? विलय के संधिपत्र में साफ़ शब्‍दों में लिखा है : "आपातकालीन परिस्थितियों में निर्मित हो रही अंतरिम सरकार।"
 
कश्‍मीर को लेकर सबसे बड़ी गुत्‍थी यह है कि कश्‍मीरियों को लगता है, भारत द्वारा दी गई सैन्‍य मदद तात्‍कालिक थी, पूर्णकालिक नहीं। साथ ही कश्‍मीर का भारत में विलय भी अल्‍पकालिक था और जनमत संग्रह के साथ वह समाप्‍त हो जाएगा। ग़ौरतलब है कि जूनागढ़ के भारत में विलय का निर्णय जनमत संग्रह से ही किया गया था। दूसरी तरफ़ भारतीयों का विचार था कि कश्‍मीर का विलय पूर्ण था, शेष पांच सौ से अधिक रियासतों की तरह।
 
धारा 370 को लेकर भी यही उलझन है। राष्‍ट्रवादियों को लगता है, वह एक अंतरिम व्‍यवस्‍था थी और एक समय के बाद उसे समाप्‍त हो जाना चाहिए था। वहीं कश्‍मीरियों को लगता है कि धारा 370 भारतीय संविधान का स्‍थायी अंग है। देखा जाए तो धारा 370 कश्‍मीर को भारत से जोड़े हुए है, क्‍योंकि जब कश्‍मीरी 370 का हवाला देते हैं, तो वे भारतीय संविधान में अपनी आस्‍था जता रहे होते हैं।
 
कश्‍मीर के संदर्भ में श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी ने "एक विधान, एक निशान, एक प्रधान" का नारा दिया था, जबकि मज़े की बात है कि कश्‍मीर का जो पृथक संविधान है, उसमें भी कश्‍मीर को भारत का अभिन्‍न अंग ही बताया गया है। घाटी में चुनाव होते हैं और अलगाववादियों की बायकॉट की अपील के बावजूद लोग वोट डालते हैं। यह भी भारतीय विधान के प्रति उनकी परोक्ष-अपरोक्ष सहमति ही है।
 
उमर अब्‍दुल्‍ला कहते हैं कि जिस दिन धारा 370 ख़त्‍म हो जाएगी, उस दिन कश्‍मीर भी भारत का हिस्‍सा नहीं रह जाएगा। लेकिन उसके बाद कश्‍मीर का क्‍या होगा, इसको लेकर वे स्‍पष्‍ट नहीं हैं।
 
कश्‍मीर समस्‍या को लेकर जितने भ्रम की स्थितियां निर्मित हैं, उनमें एक व्‍यक्ति का केंद्रीय योगदान था और वे थे, "शेरे-कश्‍मीर" कहलाने वाले शेख़ अब्‍दुल्‍ला, जो कि नेशनल कांफ्रेंस के संस्‍थापक थे और तीन बार जम्‍मू-कश्‍मीर के मुख्‍यमंत्री (पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री, जब राज्‍य के सत्‍ता प्रमुख को वज़ीरे-आज़म और संवैधानिक प्रमुख को सद्रे-रियासत कहा जाता था) रहे थे। उनके बाद उनके बेटे फ़ारूख़ अब्‍दुल्‍ला भी तीन बार और उनके पोते उमर अब्‍दुल्‍ला एक बार जम्‍मू-कश्‍मीर के मुख्‍यमंत्री रहे।
 
सन् 47 में जम्‍मू-कश्‍मीर को लेकर चार तरह की थ्‍योरीज़ चलन में थीं। और सनद रहे कि यह थ्‍योरी तो तब भी पूरी तरह से बेबुनियाद थी कि जम्‍मू-कश्‍मीर पाकिस्‍तान में जाएगा। पहले महाराजा हरिसिंह और उसके बाद शेख़ अब्‍दुल्‍ला दोनों ही इस पर एकमत थे कि जम्‍मू-कश्‍मीर पाकिस्‍तान के साथ नहीं जाएगा। हरिसिंह एक डोगरा हिंदू होने के नाते ऐसा मानते थे और शेख़ अब्‍दुल्‍ला पाकिस्‍तान को कठमुल्‍लों का देश समझते थे। लिहाज़ा, शेख़ अब्‍दुल्‍ला प्रो-पाकिस्‍तान नहीं थे, यह तो साफ़ है, लेकिन क्‍या वे प्रो-इंडिया भी थे, इसको लेकर इतिहासकारों के बीच पर्याप्‍त मतभेद रहे हैं।
 
चार कश्‍मीर थ्‍योरीज़... पढ़ें अगले पेज पर....

जो चार कश्‍मीर थ्‍योरीज़ सन् 47 में चलन में थीं, वे थीं : 
1) राज्‍य में जनमत-संग्रह हो और उसके बाद वहां के लोग ही यह तय करें कि उन्‍हें किसके साथ जाना है। नेहरू इसके लिए तैयार थे। 
2) कश्‍मीर एक संप्रभु स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बने और भारत और पाकिस्‍तान दोनों ही उसकी सुरक्षा की गारंटी लें। 
3) राज्‍य का बंटवारा हो, जम्‍मू भारत को मिले और शेष घाटी पाकिस्‍तान के पास चली जाए, और 
4) जम्‍मू और कश्‍मीर भारत के पास ही रहें, केवल पुंछ पाकिस्‍तान के पास चला जाए।
 
इनमें शेख़ अब्‍दुल्‍ला का स्‍टैंड क्‍या था? शेख़ अब्‍दुल्‍ला अलीगढ़ में शिक्षित लिबरल, सेकुलर, प्रोग्रेसिव व्‍यक्ति थे। उनके दादा एक हिंदू थे और उनका नाम राघौराम कौल था। शेख़ के जन्‍म के महज़ 15 साल पूर्व ही यानी 1890 में उन्‍होंने इस्‍लाम स्‍वीकार किया था। (शेख़ की जीवनी 'आतिश-ए-चिनार' में इसका उल्‍लेख किया गया है) नेहरू से शेख़ की गहरी मित्रता थी। सन् 46 में जब महाराजा हरिसिंह ने शेख़ को जेल में डाल दिया था तो नेहरू इससे इतने आंदोलित हो गए थे कि अपने दोस्‍त का पक्ष रखने कश्‍मीर पहुंच गए थे। 1949 में कश्‍मीर में दो 'प्रधानमंत्रियों' का मिलन हुआ था, जब 'भारत के प्रधानमंत्री' नेहरू 'जम्‍मू-कश्‍मीर के प्रधानमंत्री' शेख़ के यहां छुट्टियां मनाने पहुंचे और दोनों ने झेलम में घंटों तक साथ-साथ नौका विहार किया था।
 
हर लिहाज़ से शेख़ भारत समर्थक थे, वे भारत के संविधान में दर्ज धारा 370 के प्रावधानों में गहरी आस्‍था रखते थे, कश्‍मीर को विशेष दर्जे के पक्षधर थे और पाकिस्‍तान से घृणा करते थे। लेकिन क्‍या शेख़ के भीतर अलगाववादी स्‍वर भी दबे-छुपे थे?
 
कश्‍मीर समस्‍या की नियति गहरे अर्थों में शेख़ अब्‍दुल्‍ला के व्‍यक्तित्‍व के साथ जुड़ी हुई है। 40 के दशक में शेख़ कश्‍मीर के सबसे क़द्दावर नेता थे और उस सूबे की पूरी अवाम उनके पीछे खड़ी हुई थी। उनकी नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा सेकुलर था, यानी केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि जम्‍मू-कश्‍मीर में रहने वाले हर समुदाय के व्‍यक्ति के अधिकारों और हितों का संरक्षण। ऐसे में शेख़ के निर्णयों को कश्‍मीर के अवाम का निर्णय मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। और यह शेख़ का निर्णय था कि कश्‍मीर भारत का अभिन्‍न अंग बना रहेगा। फिर दिक्‍़क़तें कहां थीं?
 
नेहरू और गांधी दोनों ने ही शेख़ को कश्‍मीर का वज़ीरे-आज़म बनाने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया था और महाराजा हरिसिंह को चुपचाप हाशिये पर कर दिया गया था, फिर आखिर क्‍या कारण था कि ये ही शेख़ 1950 का साल आते-आते खुलेआम अलगाववादी तेवर दिखाने लगे थे? और क्‍या कारण था कि अगस्‍त 1953 में शेख़ के जिगरी दोस्‍त नेहरू ने ही उन्‍हें गिरफ़्तार करवाकर उनके स्‍थान पर बख्‍़शी ग़ुलाम मोहम्‍मद को नया प्रधानमंत्री बनवा दिया था?

पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने बड़े मज़े की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि इंदिरा गांधी इकलौती ऐसी प्रधानमंत्री थी, जिन्हें लगता था कि कश्मीर समस्या को सुलझाया नहीं जा सकता, जबकि शिमला समझौता इंदिरा की सरपरस्ती में ही हुआ था। उनके पिता जवाहरलाल नेहरू एक बहुत अच्छे प्रधानमंत्री थे, लेकिन वे एक अच्छे विदेश मंत्री साबित नहीं हो सकते थे। इसका सबूत है कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में ले जाना। अव्वल तो उन्हें ऐसा करना ही नहीं चाहिए था। और अगर करना भी था तो यूएन चार्टर के सातवें चैप्टर के तहत करना चाहिए था, छठे चैप्टर के तहत नहीं। सातवां चैप्टर एग्रेशन के मसलों से संबंधित है, यानी अगर किसी राष्ट्र को शांति बहाल करने के लिए सैन्य कार्रवाई भी करनी पड़े तो करनी चाहिए। जबकि छठा चैप्टर क्षेत्रीय विवादों को लेकर है। छठे चैप्टर के तहत कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का मतलब ही यही था कि भारत ख़ुद कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र मानता है। यह एक बहुत बड़ी भूल थी।
 
कश्‍मीर समस्‍या की जड़ें अगर इस राज्‍य की विशेष रणनीतिक स्थिति, उसकी मुस्लिम बहुल जनसांख्यिकी और नेहरू की भ्रामक मनोदशा में छुपी हैं तो शेख़ अब्‍दुल्‍ला के अनियमित रुख़ और उनकी विराट महत्‍वाकांक्षाओं को भी क्‍या इसके लिए इतना ही जिम्‍मेदार नहीं माना जाना चाहिए? आखिरकार वे "शेरे-कश्‍मीर" थे, कश्‍मीर के अवाम की आवाज़ थे और कश्‍मीर के मामले में उन्‍हें जो फ़ैसला लेना था, उसे इतिहास में कश्‍मीर के अवाम के फ़ैसले की ही तरह याद रखा जाना था।
 
मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्वकाल में जनरल जिया उल हक़ ने जब कश्मीर का राग अलापा था तो उन्होंने कहा था कि हमें कश्मीर को पाकिस्तान को देने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन तब आपको भारत की 20 करोड़ मु‍स्लिम आबादी को भी लेना होगा। एक अन्य परवर्ती प्रधानमंत्री, संभवत: विश्वनाथ प्रताप सिंह, ने कहा था कि अगर कश्मीर भारत से अलग हो गया तो फिर हम पहले ही मु‍स्लि‍मों को संदेह की नज़र से देखने वाले बहुसंख्यक हिंदुओं को संभाल नहीं पाएंगे। वह धार्मिक आधार पर देश का दूसरा बंटवारा होगा और हालात विस्फोटक भी हो सकते हैं। 
 
निजी तौर पर मेरा मानना है कि जनमत संग्रह होना चाहिए, लेकिन यह नहीं कि कश्मीर भारत के साथ रहना चाहता है या नहीं। बल्क‍ि यह कि मुसलमान भारत के साथ रहना चाहते हैं या नहीं। यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है और भारत विभाजन से लेकर कश्मीर समस्या तक के मूल में यही है। और मुझे नहीं लगता कि भारत के मुसलमानों, जिनमें कश्मीर घाटी के बहुसंख्यक मुसलमान भी शामिल हैं, के पास भारत के साथ बने रहने के अलावा कोई और बेहतर विकल्प आज है।
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