क्रांति को चाहिए खुले विचारों के पंख

शरद सिंगी
दीर्घकाल से स्वीकृत और प्रचलित मान्यताओं और परम्पराओं को चुनौती देना, उन पर प्रहार करना, किसी घटना या परिणाम को विपरीत दृष्टिकोण से देखना ऐसा या तो कोई मंदबुद्धि कर सकता है या फिर कोई क्रान्तिकारी। महान अंतरिक्ष शास्त्री, भौतिक शास्त्री, इंजीनियर, दार्शनिक और गणितज्ञ गैलीलियो ने सत्रहवीं शताब्दी में प्रचलित मान्यताओं की बुनियाद हिला दी थी जब उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दिया और गति विज्ञान के नियमों को रहस्य बताया। विज्ञान का ज्ञान क्षेत्र ऐसे  अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां वैज्ञानिकों ने लोकसम्मत आस्थाओं एवं धारणाओं को ध्वस्त करते हुए मानव सभ्यता और उसके ज्ञान को नई ऊंचाइयां दीं। ज्ञान अमित। चुनौतियां असीम तथापि उपलब्धियां अनमोल।  
 
धर्म को ही लें। सनातन धर्म में निरंतर शास्त्रार्थ चलते रहे और धर्म उत्तरोत्तर परिपक्व होता गया। यहां भी कुछ पंडित तो लकीर पीटते रहे किन्तु शंकराचार्य जैसे ऋषियों ने धर्म को सीमाओं में बांधने की कोशिश नहीं की। जिस दिन धर्म या किसी विचारधारा को सीमाओं में बांधने की कोशिश होती हो उस दिन से समझिए कि वह विचारधारा मृत्यु शैय्या पर लेट गई है। विचारों की श्रृंखला अखंड। समाज की सोच अपरिमित। अतः धर्म का दायरा भी असीमित। 
 
क्रिकेट का मैदान लें। बल्लेबाज़ी में कई शॉट्स जो कुछ वर्षों पूर्व तक निषिद्ध  थे वे अब बल्लेबाजों के मुख्य हथियार बन चुके हैं। क्रिकेट में गेंद को खेलने का हर किताबी शॉट आज बौना लगता है और हर अच्छा खिलाड़ी अपनी किताब स्वयं लिखता दिखता है, चुनौतियों पर विजय पाता दिखता है क्योंकि सामर्थ्य अपरिमेय। साहस अथाह एवं जज्बा असीम। असफल होने के डर से यदि प्रयोग न हों तो कोई विधा आगे नहीं बढ़ सकती। 
 
गावस्कर और राहुल द्रविड़ जैसे खिलाड़ी आपको खेल के नियमों को कंठस्थ करा देते हैं किन्तु नया अध्याय तो सहवाग जैसे प्रयोगधर्मी खिलाड़ी ही लिखते हैं। व्यापार-व्यवसाय को लें। पीढ़ियों से चले आ रहे व्यवसाय में यदि किसी की सोच क्रान्तिकारी नहीं होगी तो मात्र उत्तराधिकार के झगड़े होंगे। ऐसे व्यवसाय शनैः शनैः अपनी सीमाओं में सिकुड़ते चले जाएंगे। हर दिशा से देखने, समझने और फिर क्रान्तिकारी क़दमों को उठाने का साहस हो तो अवसर असंख्य। संभावनाएं अपार। अतः विस्तार अंतहीन।  
 
अब राजनीतिक दृष्टिकोण को लें। कई विचारधाराएं आईं, बुझ गईं। लेनिनवाद, माओवाद, नक्सलवाद, समाजवाद, कट्टरवाद आदि। प्रजातंत्र आया और लंबे समय से टिका हुआ है। ट्रम्प जैसे अनेक तूफान आएं जिन्होंने प्रजातंत्र को चुनौती दी। हर आने वाला तूफान प्रजातंत्र की कमजोरियों को दूर करेगा। लोहा तप कर निखरेगा। ट्रम्प के पहले का प्रजातंत्र हो या बाद का, जो जीतेगा वही आगे बढ़ेगा। व्यवस्था को कड़ी चुनौती देने वाले लोग चाहिए दुनिया में हैं। यदि निर्माण मजबूत है तो वह हर तूफान का सामना करेगा और यदि कमज़ोर है तो गिरना उसकी नियति है तथा गिरने के बाद उठना भी उसकी नियति है। भारत में आपातकाल के बाद प्रजातंत्र निखरकर ही बाहर आया, क्योंकि महत्वाकांक्षाएं हैं चिरकालिक। चिंतन चिरंतन। किन्तु बोध सनातन। 
 
तो फिर हम प्रयोगों से क्यों डरें। आकांक्षाओं एवं अभिलाषाओं के बिना जीवन लक्ष्यहीन है। वह तो मनुष्य की अमित ऊर्जा और चिरकालिक जीजिविषा ही है जिसने मानव सभ्यता को इक्कीसवीं सदी तक पहुंचाया। समय और धारा के साथ बहने से ही नए आयामों को छूने का अवसर मिलता है, किसी कवच में छुप जाने से नहीं। 
 
यदि रुकना मानव की नियति होती तो वास्को डी गामा न भारत आया होता और न ही कोलम्बस अमेरिका पहुंचा होता। न मानव एवेरस्ट पर चढ़ा होता और न ही सागर की अतल गहराइयों में पहुंचता। हमें ऐसा संसार चाहिए जहां सीमाओं से परे झांकने में भय न हो। असफलता का गम न हो। एक ठहरी हुई व्यवस्था को चुनौती देकर आगे बढ़ते नव साहसी हों, या फिर व्यवसायी हों, या राजनेता हों, या उद्यमी हों या खिलाड़ी ही क्यों न हों, उनके पीछे  समर्थन एवं सहयोग का एक आशीर्वाद भरा लंबा सिलसिला होना चाहिए। यही निरंतर व नूतन विकास का मूल मंत्र है।  
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