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कई 'स्पीडब्रेकर’ हैं विपक्षी एकता की राह में!

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अनिल जैन

सोलहवीं लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने में अभी करीब 15 महीने बाकी हैं, लेकिन 17वीं लोकसभा के चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। केंद्र में सत्तारुढ़ गठबंधन का नेतृत्व कर रही भाजपा जहां जोरशोर से अगले चुनाव की तैयारियों में जुट गई है, वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के दालान में अभी भी अकर्मण्यता ही पसरी पड़ी दिखाई दे रही है। बावजूद इसके कि गुजरात विधानसभा के चुनाव और राजस्थान में हुए उपचुनावों के नतीजे कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक रहे हैं, उसकी यह सुस्ती हैरान करने वाली है। हालांकि पिछले दिनों कांग्रेस की अगुवाई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सत्रह विपक्षी दलों की बैठक आयोजित कर यह आभास कराने की कोशिश की है कि कांग्रेस अगले चुनाव को लेकर गंभीर है, लेकिन उस बैठक से भी कोई आशाजनक संकेत निकलकर नहीं आया है।
 
 
सोनिया गांधी की पहल पर बुलाई गई विपक्ष की इस बैठक का घोषित इरादा भाजपानीत राजग सरकार की नीतियों और कामकाज के विरुद्ध विपक्ष को एकजुट करना था, लेकिन इसका असल मकसद अगामी चुनाव के मद्देनजर यूपीए को नया आकार और विस्तार देने की दिशा में आगे बढ़ना ही था। सोनिया गांधी सहित बैठक में मौजूद सभी नेताओं ने विपक्ष की एकता को देश के लिए वक्त का जरूरी तकाजा बताया। सत्रह दलों के नेताओं-नुमाइंदों की भागीदारी वाली इस बैठक को शुरू में ही संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एक तरह से बैठक का एजेंडा तय कर दिया था। उन्होंने महंगाई, बेरोजगारी, खेती और किसानों पर छाए संकट, देश के विभिनन हिस्सों में सांप्रदायिक और जातीय नफरत की लकीर पर हुई घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विपक्ष को एकजुट होना चाहिए। बैठक में कांग्रेस और दूसरे दलों के नेताओं ने भी इन्हीं मुद्दों के इर्दगिर्द अपनी राय पेश करते हुए विपक्षी एकता की जरुरत जताई।
 
 
कुल मिलाकर सारे विपक्षी नेता इस बात पर तो एकमत रहे कि एकता होनी चाहिए। मगर इस एकता को व्यावहारिक कैसे बनाया जाए, उसकी धुरी और स्वरूप क्या हो, यह एक ऐसा अहम सवाल है, जिस पर विपक्षी दलों का मिजाज अलग-अलग रहा है। जब तक सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, तब तक यह सवाल गौण था, लेकिन कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथों में आने के बाद स्थिति बदल गई है। वैसे सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के सर्वमान्य मुखिया होने के नाते व्यावहारिक तौर पर विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व का दावा तो राहुल गांधी ही बनता है, लेकिन उनको नेता मानने में कुछ महत्वपूर्ण विपक्षी क्षत्रपों का अहम आड़े आता है।
 
 
इन क्षत्रपों में ममता बनर्जी और शरद पवार मुख्य हैं, जिनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत भी कांग्रेस से ही हुई और लंबा समय भी कांग्रेस में ही गुजरा। इन दिग्गजों को लगता है कि वरिष्ठता और अनुभव के लिहाज से उनकी अगुवाई में ही विपक्षी एकता होनी चाहिए या विपक्ष को वही एकजुट कर सकते हैं। पिछले दिनों शरद पवार द्वारा विपक्षी दलों की बैठक बुलाने का जो ऐलान किया था, उसे भी उनकी दावेदारी जताने की कोशिश के रूप में ही देखा गया। शरद पवार ने यह ऐलान जनता दल यू के विभाजित धड़े के नेता शरद यादव के साथ मुंबई में 26 जनवरी को 'संविधान बचाओ’ मार्च का आयोजन करने के बाद किया था।
 
 
उनके इस ऐलान के तुरंत बाद सोनिया गांधी की पहल से विपक्षी दलों की बैठक बुलाने के पीछे निश्चित ही कांग्रेस का इरादा सबको यह अहसास कराने का ही था कि विपक्षी एकता की धुरी अब भी वही है। कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद यह विपक्ष की पहली साझा बैठक थी। एक समय राहुल गांधी के बारे में कहा जा रहा था कि वे पार्टी में नई जान नहीं फूंक पा रहे हैं, लेकिन अब कांग्रेस राहुल गांधी को लेकर उत्साहित दिख रही है। पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गढ़ गुजरात से कांग्रेस की हौसलाआफजाई करने वाले नतीजे आए और फिर राजस्थान से आए उपचुनावों के नतीजों ने भी उसके हौसलों में हवा भरी है।
 
 
अगले लोकसभा चुनाव से पहले जिन कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उनमें राजस्थान भी है। यह सही है कि महज दो-चार सीटों के उपचुनावी नतीजों के आधार पर किसी व्यापक रुझान का दावा नहीं किया जा सकता, लेकिन इतना तो जरुर कहा जा सकता है कि अब भाजपा और नरेंद्र मोदी खुद को चुनौतीविहीन मान कर नहीं चल सकते। विपक्ष अगर राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट हो सके, तो भाजपा के लिए चुनौती और परेशानी का सबब बन सकता है, लेकिन राज्यों के स्तर पर गैर-राजग दलों के अपने-अपने विरोधाभास हैं। सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख भाजपा विरोधी पार्टियों का बर्ताव और एक दूसरे के प्रति अश्पृश्यता का भाव इसी की एक मिसाल है।
 
 
ताजा बैठक में समाजवादी पार्टी तो शामिल हुई, पर बसपा गैरहाजिर रही, जबकि राष्ट्पति और उपराष्ट्रपति के चुनावों से पहले शरद यादव के प्रयासों से हुई विपक्षी दलों की बैठक और उसके बाद दिल्ली सहित देश के कई शहरों में हुए 'साझा विरासत बचाओ’ कार्यक्रम में दोनों दलों के नुमाइंदे शामिल होते रहे हैं। जाहिर है कि दोनों दलों को इस बार एक साथ लाने में कांग्रेस की ओर से कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए, जो कि बड़ा दल होने और विपक्षी एकता के नेतृत्व का दावेदार होने के नाते उसे करना चाहिए था। यही नहीं, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जहां वह भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है, उसका रवैया छोटे और सीमित प्रभाव वाले दलों के प्रति उपेक्षापूर्ण है।
 
 
इन सबके अलावा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) में कांग्रेस के साथ मेलजोल को लेकर दो राय है, जिसका संकेत पिछले दिनों कोलकाता में हुई पार्टी की केंद्रीय समिति की बैठक से निकलकर आया है। भाजपा की बढ़ी हुई राजनीतिक ताकत से सबसे ज्यादा माकपा चिंतित है, लेकिन वह भी कांग्रेस के साथ मिलकर कोई मोर्चा बनाने के सवाल पर दुविधा की शिकार है। इस दुविधा की वजह केरल की राजनीति भी है जहां माकपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस ही है।
 
 
विपक्षी एकता की राह में बाधक इन अंतर्विरोधों का अंदाजा कांग्रेस को भी है। शायद इसीलिए सोनिया गांधी ने कहा कि राज्यों में विभिन्न विरोधी दलों के अलग-अलग हित हो सकते हैं, और यह स्वाभाविक है, पर उन्हें राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एकजुट होना चाहिए, लेकिन समस्या यह है कि क्षेत्रीय दलों के लिए राज्यों के समीकरण ज्यादा मायने रखते हैं। नेतृत्व का सवाल तो अपनी जगह है ही। इन गुत्थियों या विरोधाभासों को सुलझाना भी कोई छोटी चुनौती नहीं है। इन गुत्थियों का सुलझना ही विपक्षी एकता की अनिवार्य शर्त है।

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