premanand maharaj controverial statement on women: हाल के दिनों में, कुछ कथावाचकों के बयानों को लेकर समाज में एक तीखी बहस छिड़ गई है। इन तथाकथित बाबाओं और कथावाचकों ने अपने वचनों के और ओहदे के दायरे को लांघकर महिलाओं के लिए जो बातें कहीं, वो कुछ सवाल खड़े करती हैं। इस बहस के केंद्र में कथावाचक अनिरुद्धाचार्य और प्रेमानंद महाराज जैसे सोशल मीडिया पर चर्चित नाम सामने आ रहे हैं, जिनके बयानों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि यह कैसी संत वाणी है जिसके निशाने पर महिलाएं रहती हैं?
संतों अपना दायित्व ही नहीं दायरा भी समझें : संत और कथावाचक समाज में आध्यात्मिक अलख जगाने, भक्ति का मार्ग दिखाने और जीवन की गूढ़ समस्याओं का समाधान करने के लिए होते हैं। उनका मुख्य कार्य लोगों को धर्म के सही अर्थ से जोड़ना, नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाना और मानसिक शांति प्रदान करना है। भक्त उनकी शरण में इसलिए जाते हैं ताकि उन्हें उन सवालों के जवाब मिलें जो दुनिया में नहीं मिलते, और वे गुरु के चरणों में आध्यात्मिक मार्गदर्शन पा सकें।
हालांकि, जब संत या कथावाचक व्यक्तिगत जीवनशैली, खासकर महिलाओं के पहनावे, उनकी पसंद या उनके चरित्र पर टिप्पणी करते हैं, तो यह एक संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। अनिरुद्धाचार्य जी महाराज का लड़कियों की शादी की उम्र और उनके 'मुंह मारने' वाले बयान पर टिप्पणी करना, या उन्हें कम उम्र में घर की चारदीवारी में कैद करने का सुझाव देना, या प्रेमांनद का यह कहना कि 100 में से 4-5 महिलाएं ही पवित्र होंगी। निश्चित रूप से महिला विरोधी प्रतीत होता है। ऐसे बयान महिलाओं की स्वतंत्रता, उनकी शिक्षा के अधिकार और आत्मनिर्भरता की राह में बाधा बन सकते हैं। ऐसे विषयों पर टिप्पणी करते समय किसी भी व्यक्ति चाहे वो संत हो या कथावाचक सावधानी बरती जानी चाहिए।
बच के कहना रे बाबा'
आज के आधुनिक और जागरूक समाज में, जहां महिलाएं अपनी पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं, ऐसे बयान आग में घी का काम कर सकते हैं। यह जरूरी नहीं है कि हर बाबा समाज में आ रही विकृति के बारे में अपनी राय जाहिर करे, खासकर जब वह राय महिलाओं की बाहरी जीवनशैली पर हो। उनका काम आध्यात्मिक अलख जगाना है, उन्हें लड़कियों और महिलाओं की बाहरी लाइफस्टाइल पर कमेंट करने से बचना चाहिए। उन्हें महिलाओं के प्रति जजमेंटल होने से खुद को रोकना होगा।
ऐसे बयान अक्सर विवादों को जन्म देते हैं, समाज में ध्रुवीकरण पैदा करते हैं, और स्वयं संतों की प्रतिष्ठा पर भी सवाल उठाते हैं। संतों को यह समझना चाहिए कि उनके शब्दों का गहरा प्रभाव होता है, और इसलिए उन्हें अपनी वाणी में संयम बरतना चाहिए, खासकर उन विषयों पर जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समानता या किसी वर्ग विशेष से जुड़े हों।
आध्यात्मिक मार्गदर्शन पर ध्यान केंद्रित करें : यह समय है कि संत और कथावाचक अपने मूल दायित्व, आध्यात्मिक मार्गदर्शन पर ध्यान केंद्रित करें। उन्हें ऐसे बयानों से बचना चाहिए जो किसी भी वर्ग, विशेषकर महिलाओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाएं या उनकी स्वतंत्रता पर सवाल उठाएं। समाज में विकृतियां हैं, लेकिन उनका समाधान आध्यात्मिक उत्थान, नैतिक शिक्षा और प्रेम व सद्भाव के प्रसार से होगा, न कि किसी एक को निशाना बनाकर। 'जरा बच के कहना आज के समय में हर सार्वजनिक व्यक्ति, खासकर आध्यात्मिक गुरुओं के लिए प्रासंगिक है, ताकि उनकी वाणी सचमुच मार्गदर्शक बन सके, प्रहार नहीं।