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पंजाब की राजनीति में बड़ा बदलाव आया, कुछ मिथक टूटे हैं, कुछ और टूटेंगे

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अनिल जैन

, गुरुवार, 3 मार्च 2022 (00:40 IST)
पंजाब में राजनीतिक और आर्थिक तौर पर बहुत कुछ बदल गया है। जिस तरह उत्तर प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है या प्रधानमंत्री तो उत्तर प्रदेश ही होता है वैसे ही पंजाब के बारे में कहा जाता है कि पंजाब देश का सबसे संपन्न राज्य है। लेकिन यह एक मिथक है। पंजाब अब देश के सबसे संपन्न राज्यों में नहीं रहा, बल्कि सबसे बड़ी गरीब आबादी वाले राज्यों में शामिल हो गया है।

किसी जमाने में पंजाब को देश की कृषि राजधानी माना जाता था। देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने वाली हरित क्रांति पंजाब और हरियाणा में हुई थी। लेकिन अब यह भी मिथक बन चुका है। अब पंजाब देश का सुसाइड कैपिटल बनता दिख रहा है। महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के किसानों की खुदकुशी की चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन इस सिलसिले में पंजाब का ज्यादा जिक्र नहीं होता है, जबकि पंजाब में बड़ी संख्या में कर्ज के बोझ से दबे किसान खुदकुशी कर रहे हैं।

पंजाब के सम्पन्न राज्य और कृषि राजधानी होने का मिथक किस तरह से टूटा है, इसका पता इस बात से भी लगता है कि इस बार के चुनाव में सत्ता के लिए आमने-सामने लड़ी दोनों पार्टियों- कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने गरीब तबके के मतदाताओं को रिझाने के लिए खूब मशक्कत की। कांग्रेस ने पटियाला रियासत के पूर्व महाराजा कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा कर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तो प्रचार किया कि गरीब के बेटे को मुख्यमंत्री बनाया है।

हर चुनावी सभा में कांग्रेस के नेताओं ने चन्नी को गरीब का बेटा बताकर लोगों से वोट मांगे। इसके जवाब में आम आदमी पार्टी ने प्रचार किया कि उसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भगवंत मान ही असली आम आदमी है। इस तरह पूरे चुनाव भर दोनों पार्टियों में चन्नी और मान को असली आम आदमी और गरीब साबित करने की होड़ लगी रही। यह भी राज्य की राजनीति बदलने का एक बड़ा संकेत है।

दरअसल पंजाब में इस बार का चुनाव पिछले सभी चुनावों से कई मायनों में अलग रहा है। इस चुनाव में कई मिथक टूटे हैं, जिससे इस सूबे की राजनीति बदलने के संकेत मिले हैं। पंजाब में आमतौर पर कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन के बीच मुकाबला होता रहा है।

पिछले विधानसभा और पिछले दो लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की वजह से चुनाव त्रिकोणात्मक बना। लेकिन इस बार न सिर्फ अकाली दल और भाजपा चुनाव मैदान में अलग-अलग उतरे बल्कि कुछ किसान संगठनों का एक नया दल भी मैदान में आ गया, जिससे मुकाबला पांच कोणीय हो गया यानी अब पंजाब की राजनीति दो ध्रुवीय नहीं रही।

2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने अपने पहले ही चुनाव में शानदार प्रदर्शन करते हुए चार सीटों पर जीत दर्ज की थी। उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने सत्तारूढ़ शिरोमणी अकाली दल से भी बेहतर प्रदर्शन किया और मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई।

फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उसे सीट भले ही एक मिली लेकिन प्राप्त वोटों के लिहाज से उसका प्रदर्शन बेहतर रहा। साल 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी जीत के बाद उसने इस बार पंजाब में ज्यादा ताकत से चुनाव लड़ा और उसका दावा है कि वह सत्ता में आ रही है।

दरअसल इस बार का चुनाव पहले के किसी भी चुनाव से ज्यादा दिलचस्प इसलिए हो गया है क्योंकि यह पहला ऐसा चुनाव रहा जिसमें अकाली दल और भाजपा का दशकों पुराना साथ छूट गया और दोनों अलग-अलग लड़े। विवादित कृषि कानूनों के मसले पर अकाली दल ने किसानों के हितों की बात करते हुए भाजपा से नाता तोड़ लिया था और केंद्र सरकार में उसकी नुमाइंदगी कर रहीं हरसिमरत कौर बादल ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।

दिलचस्प बात यह भी रही कि जिन किसानों के हितों की दुहाई देते हुए और किसान आंदोलन के समर्थन में अकाली दल ने भाजपा से नाता तोड़ा उन किसानों के कुछ संगठन एक राजनीतिक दल बनाकर चुनाव मैदान में आ डटे। संयुक्त किसान मोर्चा ने तीन विवादित कृषि कानूनों के विरोध में एक साल तक आंदोलन किया था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन कानूनों को अपनी नाक का सवाल बना बैठे थे और उनकी सरकार इन कानूनों को वापस लेने से लगातार इनकार कर रही थी, लेकिन पांच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले सरकार को तीनों कानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी तीनों को ही उम्मीद थी कि किसान आंदोलन का समर्थन करने का फायदा उनको मिलेगा। पर संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल कम से कम 20 छोटे-बड़े किसान संगठनों ने मिलकर चुनाव में उतरने के लिए संयुक्त समाज मोर्चा बना लिया और 100 से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। उसके कितने उम्मीदवार जीत पाएंगे, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन उनकी वजह से तीनों पार्टियों के वोटों का गणित बुरी तरह बिगड़ गया।

हालांकि कांग्रेस ने ऐन चुनाव से पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर एंटी इन्कम्बैसी कम की और फिर दलित समुदाय के चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर और उनके चेहरे पर ही चुनाव लड़ने की घोषणा कर मैदान में उतरी तो बाकी दलों के मुकाबले बेहतर तैयारी के साथ लड़ती दिखी है। जबकि उसे चुनौती देकर सरकार बनाने की हसरतों के साथ मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी ने अपने दिल्ली मॉडल, 'मुफ्त' वाली राजनीति और हर महिला को एक हजार रुपए प्रतिमाह देने के वादे के साथ मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की।

उधर भाजपा यह बात अच्छी तरह जानती थी कि उसे किसानों का रत्तीभर समर्थन नहीं मिलेगा, क्योंकि तीनों कानूनों की वापसी के बावजूद किसानों में भाजपा से जबरदस्त नाराजगी थी। यह नाराजगी भाजपा के साथ मिलकर लड़ रहे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के हिस्से में भी आई है।

किसान आंदोलन के समय अमरिंदर सिंह सूबे के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने आंदोलन का समर्थन भी किया था। लेकिन बाद में जब कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया तो उन्होंने कांग्रेस से निकलकर पंजाब लोक कांग्रेस के नाम से अलग पार्टी बना ली।

अकाली दल से गठबंधन टूटने के बाद भाजपा को भी किसी नए सहयोगी की तलाश थी। उसे कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढींढसा के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) का साथ मिल गया।

चूंकि इन तीनों पार्टियों के गठबंधन को किसानों का समर्थन तो मिलना ही नहीं था, सो इस गठबंधन ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर चुनाव लड़ा। इस गठबंधन को उम्मीद है कि उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे और हिंदू वोटों के दम पर इतनी सीटें तो मिल ही जाएंगी कि वह चुनाव बाद राज्य की राजनीति के समीकरण को प्रभावित कर सके।

इस तरह सूबे में कांग्रेस, अकाली दल, आम आदमी पार्टी, भाजपा गठबंधन और संयुक्त समाज मोर्चा के बीच पहली बार पांच कोणीय मुकाबला हुआ। सत्तारूढ़ कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और अकाली दल ने सभी 117 सीटें अकेले दम पर लड़ी। भाजपा ने 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे जबकि उसकी सहयोगी पंजाब लोक कांग्रेस और अकाली दल संयुक्त ने क्रमश: 37 और 7 सीटें लड़ीं। किसान संगठनों के संयुक्त समाज मोर्चा के भी 100 से ज्‍यादा उम्मीदवार मैदान में रहे।

इस तरह पांच पार्टियों के बीच हुए मुकाबले से सूबे की चुनावी तस्वीर उलझी हुई लगती है। किसने किसके वोट काटे हैं और कौन किसकी जीत में सहायक बना है, यह कहना मुश्किल है। दलित समुदाय किस हद तक दलित मुख्यमंत्री के नाम पर कांग्रेस के साथ रहा, कितने जाट सिखों का अकाली दल को समर्थन मिला, कितने किसान संयुक्त समाज मोर्चा के साथ गए, आम आदमी पार्टी को किन-किन वर्गों का समर्थन मिला और भाजपा के लिए अमरिंदर सिंह का साथ कितना फायदेमंद साबित हुआ, इन सब सवालों पर अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा है। इसीलिए त्रिशंकु विधानसभा की संभावना जताई जा रही है।

अगर ऐसा होता है तो पंजाब में यह पहली बार होगा और यह मिथक टूटेगा कि पंजाब के चुनाव में हमेशा स्पष्ट जनादेश मिलता है। अगर कांग्रेस फिर से सत्ता में वापसी करती है तो यह भी टूटेगा कि पंजाब में कोई भी पार्टी लगातार दो बार सत्ता में नहीं आती। इसके विपरीत अगर आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो यह मिथक टूटेगा कि पंजाब की राजनीति दो ध्रुवीय है जो कांग्रेस और अकाली दल के बीच बंटी हुई है।(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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