नए वर्ष के पहले दिन ही राष्ट्रपति ट्रंप ने हमारे पड़ोसी पाकिस्तान के घर में एक 'ट्वीट धमाका' कर दिया जब उन्होंने पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। ट्रंप सरकार की अनेक चेतावनियों के बावजूद भी पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई अपना समर्थन और सहयोग आतंकियों को देना जारी रखे हुए है। सच तो यह है कि पाकिस्तान इस समय दो राहों पर खड़ा है और उसके सरकारी अधिकारी भी दो खेमों में बँटे हुए हैं। एक खेमा चाहता है आतंकियों का सफाया हो तो दूसरा खेमा चाहता है कि आतंकियों का सफाया तो हो किन्तु उन्हीं का हो जो पाकिस्तान के दुश्मन हैं और खबरों के अनुसार दूसरा खेमा अधिक मजबूत है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के पास कोई और उपाय नहीं है सिवाय अमेरिका के आरोपों का खंडन करने के।
9/11 की वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दुखद घटना के बाद अमेरिका, तालिबान का सफाया करने अफगानिस्तान में घुस पाया तो पाकिस्तान की वजह से या यूँ कहिये तब पाकिस्तान की वजह से अफगानिस्तान में घुसना अमेरिका के लिए आसान हो गया था। किन्तु उसके बाद से पाकिस्तान का चरित्र एक 'डबल क्रॉस एजेंट' की तरह बना रहा है जो अनुकूल समय में तो तालेबान आतंकियों के साथ रहता है और अमेरिका की मार पड़ने पर अमेरिका के साथ हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में तैनात अमेरिका की राजदूत निक्की हेली ने भी इस दोहरे चरित्र की पुष्टि की।
पाकिस्तान की दो मुँही नीति समझना बहुत आसान है। अफगानिस्तान में अफगान तालिबान के दो भाग हैं। एक वे है जो पाकिस्तान समर्थक हैं और दूसरे वे जो उसके दुश्मन हैं। किन्तु अमेरिका के तो दोनों ही दुश्मन हैं। पाकिस्तान चाहता है कि उसके समर्थक तालिबानों को पुनः सत्ता मिल जाय और वर्तमान में जो अफगानिस्तान में भारत समर्थक सरकार कार्यरत है उसे गिरा दिया जाए। चूँकि वर्तमान सरकार को अमेरिका का सहयोग प्राप्त है और उसके भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते भी हैं अतः पाकिस्तान उसे स्थिर नहीं देखना चाहता। कुल मिलाकर उसे अमेरिका से धन तो चाहिए किन्तु उसका उपयोग किया जाता है पाकिस्तान के दुश्मन तालिबानों को मारने में, पाकिस्तान समर्थक तालिबानों को हथियार देने में और अफगानिस्तान सरकार को अस्थिर करने में।
पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका पाकिस्तान पर निरंतर दबाव बनाता रहा है आतंकियों के सफाये के लिए। किन्तु जैसा हमने देखा, पाकिस्तान के पास आतंकियों को देखने के लिए दो चश्मे हैं। जो अफगानिस्तान या भारत के कश्मीर में जाकर धमाके करते हैं, पाकिस्तानी फ़ौज के अनुसार वे देशभक्त आतंकी हैं अतः उन्हें किसी भी सैनिक कार्यवाही की खबर पहले हो पहुँचा दी जाती है या फिर उनके छुपने वाले इलाके में कोई कार्यवाही होती ही नहीं है। सरकार और ख़ुफ़िया एजेंसी में उनसे सहानुभूति रखने वाले अनेक लोग हैं अतः ये आतंकी, पाकिस्तानी सेना या सरकार की पहुँच के बाहर हैं।
उधर पाकिस्तान की सामान्य जनता आम तौर पर अमेरिका के विरोध में है। ऐसा इसलिए कि उन्हें सिखाया ही ऐसा जाता है। उदाहरण के लिए उन्हें बताया जाता है कि 9/11 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला अमेरिका और इसराइल की साजिश है। बिन लादेन का उसमे कोई हाथ नहीं था। सीरिया की समस्या अमेरिका जनित है। ईसिस और तालेबान अमेरिका की पैदाइश है। मध्य पूर्व का संकट अमेरिका ने खड़ा किया है। यानी इस्लामिक जगत की सारी समस्याओं के पीछे अमेरिका और बस अमेरिका है। जनता में पैठ कर गई इस दुर्भावना को हवा देकर ये नेता अपनी रोजी रोटी चलाते हैं।
विडंबना देखिये कि जनता में भ्रान्ति फ़ैलाने वाले ये राजनेता अमेरिका से व्यक्तिगत रूप से अच्छे संबंध रखना चाहते हैं। पाकिस्तान का हर बड़ा नेता और सेना का सेवानिवृत अधिकारी अमेरिका में बसना चाहता है। प्रेसीडेंट ट्रंप यद्यपि निरंतर पाकिस्तान को चेतावनी दे रहे हैं और उनकी हर चेतावनी पहली चेतावनी से अधिक गंभीर होती हैं किन्तु जमीनी तौर पर अभी तक पाकिस्तान का वे कुछ बिगाड़ नहीं पाए हैं। बिना सजा के पाकिस्तान से उम्मीद बेकार है। अमेरिका जब तक केवल धमकियाँ देता रहेगा वह अफगानिस्तान की शांति में रोड़ा बना ही रहेगा। अमेरिका में कितना धैर्य है वह तो समय ही बताएगा किन्तु भारत का धैर्य तो अब जवाब दे चुका है। इसीलिए हमारी सेनाएं अब सीमा पार जाने में हिचकिचाती नहीं। उनकी हर मुहीम सफल भी हुई है। पर अब विश्वास हो चला है कि प्रेसीडेंट ट्रंप की यह निर्णयकारी चेतावनी केवल धमकी न रहकर प्रभावशाली परिणाम भी दिखाएगी।