याकूब मेमन की फांसी से उपजे सवाल?

Webdunia
मुंबई बम कांड के एक आरोपी और इसके प्रमुख कर्ताधर्ताओं के भाई याकूब मेमन की फांसी से जहां बहुत सारे सवालों पर विराम लग गया है वहीं बहुत सारे नए सवाल खड़े हो गए हैं। भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता की परीक्षा भी इस घटना के बाद होगी क्योंकि महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या घटना के बाद सभी दलों के राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस घटना का दोहन नहीं करेंगे?
 
क्या भाजपा और राजग का नेतृत्व यह बात सुनिश्चित कर पाएगा कि उसका कोई मंत्री, सांसद या नेता और संघ परिवार से जुड़े छुटभैया नेता इस फांसी को लेकर अपनी खुशी जाहिर करने से नहीं चूकेंगे? क्या मुस्लिम दल या मुस्लिम परस्त दलों और तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष दलों' के नेता अल्पसंख्यकों के वोट पाने के लिए क्या पीड़ित पक्ष के पैरोकार नहीं बनेंगे। इसके साथ ही, मीडिया और इसका बहुत अधिक लोकतांत्रिक अवतार सोशल मीडिया से जुड़े लोग इस बात पर आत्ममंथन करेंगे कि फांसी को लेकर कट्टर राष्ट्रवाद और इसके पक्ष-विपक्ष में शामिल होने से क्या राजनीति और अधिक विषाक्त नहीं हो जाएगी? 
 
लेकिन, दुख की बात यह है कि हमारा पिछला रिकॉर्ड बताता है कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है और हमारा देश रातोंरात नहीं बदलने वाला है? लेकिन इस घटना से लोकतंत्र से जुड़े प्रत्येक घटक को सीख लेनी चाहिए क्योंकि अगर हम ऐसे मामलों से सीख नहीं लेते हैं तो इसका सीधा सा निष्कर्ष होगा कि हम अपने लोकतंत्र संबंधी दावों पर कभी खरे नहीं उतर पाएंगे। इस घटना के बाद देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका को ध्यान देना होगा कि हमें अपने कानूनों और संस्थाओं को और मजबूत बनाने की जरूरत है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि इस मामले की तरह भविष्य में अन्य मामलों को इतना ही विवादास्पद बनाए जाने का ‍‍सिलसिला चल निकले। अगर कानून और संस्थाएं लोगों और गुटों से ऊपर उठकर नहीं सोच पाती हैं तो हमें ऐसा ही लगेगा कि वास्तविक रूप से न्याय होने के बावजूद लगेगा कि कभी भी न्याय होता नहीं दिखाई दे रहा है।       
 
हमें जान लेना चाहिए कि मुस्लिम दलों और उनके समर्थक इस फांसी के मामले को इसलिए तूल दे पाए क्योंकि तीन अन्य मामले ऐसे हैं जिनमें राजनीतिक कारणों से फांसी पाए आरोपियों को फांसी नहीं दी जा सकी और एक मामले में तो आरोपियों की फांसी की सजा को ही आजीवन कारावास में बदल दिया गया। अगर आपको पता नहीं हो तो आपको यह बता दें कि दो सिख हत्यारों और राजीव गांधी की हत्या में शामिल तीन तमिल हत्यारों को फांसी नहीं दी जा सकी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा पर कोई निर्णय लेने में 11 वर्षों से अधिक समय लगा दिया। 
 
राजनीतिक कारणों और क्षेत्रीय दलों की मदद के चलते इन लोगों को फांसी नहीं दी जा सकी क्योंकि तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक हितों के कारण ऐसा होने देना नहीं चाहते थे। दो सिख हत्या के आरोपियों के मामले में भी राजनीतिक कारणों से ऐसा नहीं किया जा सका। मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने मेमन मामले में ऐसा नहीं होने दिया, लेकिन इसकी रीढ़ की मजबूती को भी तभी परखा जाएगा जबकि हिंदू वोट बैंक के लिए अहम किसी अपराधी को फांसी की सजा सुनाई जाती है। 
 
भारत सरकार के सामने असली परीक्षा अब होगी क्योंकि पाकिस्तान की आईएसआई, भारत में जिहाद समर्थक तत्व और विदेशों में रहने वाले समर्थक याकूब मेमन की फांसी को अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिमों पर अत्याचार की तरह प्रचारित करेंगे। पाकिस्तान और अन्य देशों में जिहाद समर्थक तत्वों को शशि थरूर की तरह यह कहने का मौका मिलेगा कि यह सरकार द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का मामला है और वे जिहाद के लिए अधिकाधिक जिहादियों को आतंकवादी शिविरों में भर्ती कर सकेंगे।
 
इस घटना का एक सीधा सा असर यह होगा कि देश पर होने वाले आतंकवादी हमलों में बढ़ोतरी होगी। आतंकवादी और उनके समर्थक मुंबई और महाराष्ट्र को अधिकाधिक निशाना बनाने की कोशिश करेंगे।
 
अगर भविष्य में ऐसे मामले होते हैं तो सरकार और पुलिस को सुनिश्चित करना होगा कि इन मामलों की निष्पक्ष जांच हुई है और कानून-व्यवस्था के मामले में सभी भारतीय बराबर हैं। उल्लेखनीय है कि मुंबई बम कांड में दस और आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सभी मुस्लिम आरोपियों को नाममात्र की सजा दी गई है। याकूब मेमन को छोड़कर उन आरोपियों के नाम किसी को क्यों याद नहीं हैं जो कि याकूब को निर्दोष मानते हैं। ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि याकूब के ही दो भाई मुंबई में रह रहे हैं और सरकार ने उन्हें ही उसका शव सौंपा लेकिन क्या लोगों को इन भाइयों के नाम याद हैं? अगर ऐसे मामलों को लेकर विवाद होता है तो इसका सीधा सा कारण यही है कि लोगों को पुलिस की जांच और इसकी क्षमताओं को लेकर भरोसा नहीं है। 
 
इस घटना के बाद सरकार को पुलिस में सुधार के बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि जब तक पुलिस बल राजनीतिक दलों, नेताओं की सनक पर चलता रहेगा तब तक निष्पक्ष जांच और सक्षम पुलिस बल की कल्पना करना बेमानी होगा। पुलिस के भ्रष्टाचार और इस पर नेताओं की सांप जैसी जकड़ को सभी जानते हैं लेकिन जो भी दल सत्ता में आता है, इसका दुरुपयोग करने से बाज नहीं आता है। इस घटना के बाद सरकार को पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के लिए एक सुस्पष्ट 'स्टेंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स' तय किए जाएं ताकि आतंकवादी घटनाओं के होने पर मीडिया को जानकारी देने पर कोई भ्रम न रहे। इसी तरह जिस मामले में लोगों की बहुत अधिक दिलचस्पी हो, उनमें जांच या इससे जुड़े परिवर्तनों को संभालने की जिम्मेदारी बहुत ही सक्षम और जिम्मेदार लोगों को सौंपी जाए।      
 
ऐसे मामलों में यह भी तय किया जाए कि सरकार लोगों या मीडिया को ‍कब और कितनी जानकारी उपलब्ध कराए। मीडिया को भी बताया जाए कि उसे लोगों को क्या बताना है और क्या नहीं, क्योंकि ऐसा न होने पर नियंत्रण संबंधी उपाय भी अधूरे रहते हैं। मीडिया पर भी इस बात का अंकुश होना चाहिए कि संवेदनशील मामलों पर सभी पक्षों को रखते हुए क्या सावधानी बरती जाए जबकि आज स्थिति यह है कि मीडिया में ऐसी बातों को सोचने की जरूरत ही नहीं समझी जाती है। साथ ही, सरकार को भी तय करना होगा कि जब किसी को फांसी दी जाने वाली हो तो कोई राजनीतिक बहस या मीडिया में इसे लेकर वाद-विवाद न हो क्योंकि ऐसी बहसें और वाद-विवाद पक्षपातपूर्ण ही अधिक होते हैं। सरकार लोगों को बताए कि ऐसी बहस करने का सही समय तब होता है कि देश में किसी को भी फांसी नहीं दी जा रही है। 
 
इस मामले पर संसद में भी बहस होना चाहिए कि वे मुद्दे कौन-कौन से हो सकते हैं,  जिनके आरोपियों को फांसी दी जाए या मृत्युदंड को बना रहना चाहिए या नहीं। कानून और सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े लोग तय करें कि 'दुर्लभतम' या 'दुर्लभ' मामले कौन-कौन से हो सकते हैं? कहने का अर्थ है कि याकूब मेमन की दुखद फांसी से यह सीखा जाना चाहिए कि देश के लोग पक्षपात से कैसे ऊपर उठें और कुछ गलत बातों पर रोक लगाई जा सके। अंतत: कहा जा सकता है कि एक कमजोर देश की नींव को मजबूत होकर उभरने की जरूरत है क्योंकि देश भी तभी मजबूत होगा जब लोग व्यक्तिगत हितों और पक्षपात से उपर उठकर सोच सकेंगे। 
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