अफसरशाही को कैसे सुधारें?

गुरचरन दास
NDND
हिमाचल प्रदेश में रहने वाले मेरे एक मित्र ने पिछले सप्ताह मुझे फोन करके बताया कि इस बार उसने कांग्रेस के बजाय भाजपा को वोट दिया, क्योंकि जैसे ही वह स्नान करने जाता, नल में पानी आना बंद हो जाता।

रिक्शा वाले के लिए मुद्दे की बात यह है कि पुलिस वाले उसकी दैनिक कमाई का पाँचवाँ हिस्सा हफ्ते के रूप में वसूल न कर लें। किसान चाहता है कि पटवारी को घूस दिए बिना उसे अपनी जमीन का पट्टा मिल जाए। झोपड़पट्टी में रहने वाली बीमार महिला चाहती है कि जब वह प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर जाए, तो वहाँ डॉक्टर मौजूद हो। एक माँ चाहती है कि उसके गाँव के स्कूल में शिक्षक आए और उसके बच्चे को कुछ पढ़ाए। सरकार इसी प्रकार आम लोगों के जीवन को छूती है और यहीं हर सरकार नाकाम होती है।

रोजमर्रा की इन स्थितियों में जब सरकार नाकाम होती है, तो आम आदमी क्या करता है? झुँझलाकर वह अपना वोट राजनीतिक धूर्तों के एक समूह से बदलकर दूसरे समूह को दे आता है। जिसे हम 'सत्ता विरोधी रुझान' कहते हैं, वह वास्तव में प्रशासन की रोजमर्रा की नाकामियों के खिलाफ मतदान होता है।

हमारी स्थानीय, राज्य तथा केंद्रीय सरकारें भ्रष्टाचार एवं कुप्रबंधन में इस कदर डूबी हुई हैं कि वे अच्छे स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी आम आदमी को उपलब्ध नहीं करा पातीं। अब तक तो हमारे नेताओं को यह बात समझ में आ जाना चाहिए थी।

लोकतंत्र में राजनेताओं को दोष देना बहुत आसान है, लेकिन उनसे भी अधिक दोषी है अफसरशाही। हमारी सरकारों के प्रति हमारे मोहभंग में जितना योगदान अफसरशाही का है, उतना किसी और का नहीं। किसी भी अन्य संस्थान ने हमें इतना निराश नहीं किया है। जब हम युवा थे, तो हमने ब्रिटेन से विरासत में मिली आईसीएस के 'इस्पाती ढाँचे' के मिथक में विश्वास कर लिया।

जवाहरलाल नेहरू ने हमसे कहा था कि ब्रिटेन इतना सुशासित इसलिए नहीं है कि उसके पास भारतीय सिविल सेवा नहीं है। आज हमारी अफसरशाही विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन गई है। भारतीय अपने अफसरशाहों को आत्मकेंद्रित, धन ऐंठने वालों, रोड़े डालने वालों और भ्रष्ट लोगों के तौर पर देखते हैं। आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के बजाय वे इन्हें रोकने के लिए जिम्मेदार हैं।

पचास के दशक में जब आदर्शवादी नेहरू अपनी 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' के लिए एक नियामक ढाँचा चाहते थे, तो अफसरशाहों ने उन्हें लायसेंस राज दे दिया। समाजवाद के पवित्र नाम पर उन्होंने हजारों नियंत्रण खड़े कर दिए और हमारी औद्योगिक क्रांति को जन्म लेते ही मौत के घाट उतार दिया।

सक्रिय व्यवसाय के मेरे 30 वर्षों के अनुभव में मेरी एक भी ऐसे अफसरशाह से मुलाकात नहीं हुई जो वास्तव में मेरे व्यवसाय को समझता हो लेकिन उसके पास मेरे व्यवसाय को तबाह करने की ताकत जरूर थी। कुल मिलाकर हमारी असफलता का कारण विचारधारा कम और खराब सार्वजनिक प्रबंधन ज्यादा रहा है।

कुशासन की जड़ कहाँ है? साक्षात स्वर्ग से उतरे अफसरशाह ने हमें इस कदर निराश क्यों किया है? भारत के केंद्रीय, राज्य एवं स्थानीय शासन के कर्मचारी अपना काम ठीक तरह क्यों नहीं करते? क्या इसलिए कि श्रम कानून इस हद तक उनकी रक्षा करते हैं कि वे स्वयं को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानते?

यह कुछ हद तक सही है लेकिन वाम दलों और उनके श्रमिक संगठनों के समर्थन पर टिकी वर्तमान सरकार से श्रम सुधारों की उम्मीद न के बराबर है। फिर भी हमारे सामने अच्छे कार्य-निष्पादन के उत्कृष्ट उदाहरण मौजूद हैं- दिल्ली मेट्रो का निर्माण, इंदौर की अनुकरणीय बस सेवा, बीसी खंडूरी के कार्यकाल में तेजी से फैलती राष्ट्रीय राजमार्ग प्रणाली का उत्कृष्ट परियोजना प्रबंधन आदि। ये भले ही अपवाद रहे हों लेकिन इनसे साबित होता है कि अच्छा काम भी हो सकता है।

सत्ता संभालने के कुछ ही माह बाद 2004 के स्वतंत्रता दिवस पर मनमोहनसिंह ने लालकिले की प्राचीर से देश के समक्ष घोषणा की थी कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता हमारी शासन प्रक्रिया को बदलना है।

उन्होंने कहा था कि वे गरीबों के लिए सेवाओं के निष्पादन तथा अफसरशाही द्वारा कार्यान्वयन में सुधार लाएँगे। हमने उनकी बातों पर भरोसा किया और बड़ी-बड़ी उम्मीदें पाल लीं। आज साढ़े तीन साल बाद ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है और हमारी उम्मीदें धराशायी हो गई हैं। कोई उल्लेखनीय प्रशासनिक सुधार नहीं हुए हैं।

सरकारी कर्मचारी अब भी पहले की ही तरह अहंकारी, भ्रष्ट तथा अनुत्तरदायी हैं। वे काम करें या न करें, उनकी पदोन्नाति होती रहती है।

तो समस्या का हल क्या है? अफसरशाही को समाप्त करना तो संभव नहीं है। हमें अपने प्रशासनिक ढाँचे का आकार घटाना होगा और उसे अधिक परिणामोन्मुख बनाना होगा। हमें ब्रिटेन से सबक लेना चाहिए।

बताते हैं कि वहाँ प्रशासनिक सेवाओं में 1979 के मुकाबले 40 प्रतिशत कम लोग हैं। इससे न केवल प्रति वर्ष एक अरब पौंड से अधिक की बचत हुई है बल्कि प्रशासन में सुधार भी आया है। हमें ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से भी सबक लेना चाहिए, सिविल सेवाओं को परिणामोन्मुख तथा उत्तरदायित्वपूर्ण बनाया गया है और इस अवधारणा को त्याग दिया गया है कि सरकारी नौकरी तो जिंदगी भर के लिए ही होना चाहिए। वहाँ यदि किसी अफसर का काम संतोषजनक न हो तो उसे नौकरी से हटा दिया जाता है।

हमारे प्रशासनिक ढाँचे का आकार घटाना तो मनमोहन सिंह के लिए आसान नहीं होगा लेकिन वे अफसरशाही को परिणामोन्मुख और नागरिकों के प्रति अधिक संवेदनशील तो बना ही सकते हैं। उन्होंने एक और सुधार आयोग के गठन की गलती कर दी है।

प्रशासनिक सुधारों पर अनेक समझदारीपूर्ण रिपोर्ट्‌स पिछले 50 वर्षों से धूल खा रही हैं। जरूरत है क्रियान्वयन करने वाले एक निकाय की, जिसकी अध्यक्षता कैबिनेट सचिव कर सकते हैं।

मनमोहनसिंह को हमारे इतिहास के 1991-93 के प्रेरणादायक काल की ओर देखना चाहिए, जब नरसिंहराव ने आर्थिक सुधार लागू करने में जबर्दस्त सफलता प्राप्त की। उन्होंने स्वयं मनमोहनसिंह व पी. चिदंबरम जैसे सुधारकों को तो सरकार में शामिल किया ही, साथ ही एएन वर्मा के रूप में एक क्रियान्वयक को भी ले आए।

वर्मा प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव थे, जिनका कार्यालय आर्थिक सुधार लागू करने का नियंत्रण कक्ष बन गया था। इन सुधारों को लागू करने की दैनंदिन गति को बनाए रखने में वर्मा के योगदान को पर्याप्त प्रतिसाद नहीं मिला है।

वर्मा प्रति गुरुवार आर्थिक मंत्रालयों के सचिवों की बैठक लेते थे। इसमें सप्ताह-दर-सप्ताह सुधारों का संयोजन होता, उन पर निगरानी रखी जाती, कैबिनेट से स्वीकृति ली जाती और सुधारों पर अमल शुरू कर दिया जाता। बैठक केवल दो घंटे तक चलती, जिसमें सुधार विशेष पर खुलकर चर्चा की जाती। वर्मा बैठक के निष्कर्षों का सारांश तैयार करते और सुधार प्रस्ताव उसी दिन कैबिनेट की स्वीकृति के लिए पेश कर दिया जाता। अगले सप्ताह इसे संसद के समक्ष ले जाया जाता।

अब भी देर नहीं हुई है। मनमोहनसिंह को जीवन में दूसरी बार इतिहास रचने का अवसर मिला है। पहली बार उन्होंने आर्थिक सुधारक के रूप में इतिहास बनाया था। अब वे हमारी प्रशासनिक प्रणाली को बदलकर हमें सुशासन दे सकते हैं।
( लेखक प्रॉक्टर एंड गैंबल इंडिया के पूर्व सीईओ तथा 'मुक्त भारत' के लेखक हैं।)

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