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नज़्म उलझी हुई है सीने मे ं
मिसरे अटके हुए है ं होठों प र
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तर ह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ह ी नही ं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जान म
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेर ा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल ह ै
इससे बेहतर भी नज़् म क्या होगी ।
गुलजार की इस नज्म में कही गई बात पर जरा गौर फरमाएँ। इसमें लफ्ज सादा हैं, कहने का ढंग सादा है। इक बात है गहरी और जिस बात को लिखा गया है वह कागज भी सादा है और एक पीड़ा है कि मेहबूब का खयाल ही इतना घना है कि बस नाम लिखके वह बैठा है और सीधे दिल से निकली बात कहता है कि बस तेरा नाम ही मुकम्मल है, इससे बेहतर भी नज्म क्या होगी। अब कौन न मर जाए इस बला की सादगी पर। यही गुलजार का जादू है।