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एक बार खबर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूँ फैली
कि कविता अब नहीं रही!
यकीन करनेवालों ने यकीन कर लिया
कि कविता मर ग ई
लेकि न शक करने वालों न े शक किया
क ि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान
ऐसा पहली बार नहीं हु आ
कि यकीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ ए क शक ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को।
मुझे लगता है तमाम हो-हल्ले के बीच यह ब्लॉग अपने तरीके से कविता को बचाने की कोशिश करता है। यहाँ दी गई वे कविताएँ हैं जो सहज संप्रेषणीय हैं और कविता से दूर जाते पाठक को पास बुलाने के लिए शायद यह एक तरीका है। इस दृष्टि से अनामिका की मौसियाँ, एकांत श्रीवास्तव की रास्ता काटना, लोहा, अशोक वाजपेयी की विश्वास करना चाहता हूँ, असद जैदी की कुंजड़ों का गीत, कुमार अंबुज की किवाड़, एक कम है, जगूड़ी की मेरी कथा, प्रार्थना, श्रीकांत वर्मा की कोसल में विचारों की कमी है, रघुवीर सहाय की दर्द, सेब बेचना, देवी प्रसाद मिश्र की मामूली कविता, मंगलेश डबराल की आँखें, त्वचा, उदयप्रकाश की दिल्ली और बैल, नरेश सक्सेना की फूल कुछ नहीं बताएँगे और विष्णु नागर की माँ सब कुछ कर सकती है जैसी कविताएँ मार्मिक हैं। पाकिस्तानी शायर अहमद फराज का शेर और जहरा निगाह की कविता बनवास ध्यान खींचती है।
अनामिका की कविता की मौसियाँ की पंक्तियाँ देखिए-