एक राष्ट्र है, जो राष्ट्र है भी और नहीं भी...

शरद सिंगी
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यह कहानी है एक ऐसे राष्ट्र की जो राष्ट्र है भी और नहीं भी। इसकी अपनी सरकार, अपना राष्ट्रपति, अपनी मुद्रा और अपनी सेना है फिर भी इसे सम्पूर्ण राष्ट्र का दर्जा नहीं। हम बात कर रहे हैं ताइवान की। आधिकारिक तौर पर इसका नाम 'रिपब्लिक ऑफ चाइना' है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जिसे हम चीन कहते हैं वह 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' है और ताइवान केवल 'रिपब्लिक ऑफ चाइना'।

ताइवान की जनसंख्या ढाई करोड़ से कम है और इसकी राजधानी ताइपेई है। चीन की समुद्री सीमा से मात्र सौ मील की दूरी पर स्थित है यह द्वीप। इस छोटे से देश में आर्थिक और औद्योगिक विकास बहुत तेजी से हुआ। विशेषकर इलेक्टॉनिक उपकरणों के उत्पादन और उच्च तकनीक उद्योग ने दुनिया के नक़्शे पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। आज हम कई उपकरणों पर 'मेड इन ताइवान' लिखा देखते हैं। ताइवान की अर्थव्यवस्था मजबूत है तथा इसकी मुद्रा ताइवानी डॉलर भारतीय रुपए के मुकाबले दुगुनी मजबूत है अर्थात एक ताइवानी डॉलर से दो रुपए खरीदे जा सकते हैं।

सन् 1949 में चीन में दो दशक तक चले गृहयुद्ध के अंत में जब 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' के संस्थापक माओत्से तुंग ने पूरे चीन पर अपना अधिकार जमा लिया तो विरोधी राष्ट्रवादी पार्टी के नेता और समर्थक ताइवान भाग खड़े हुए। माओ के डर से ताइवान अमेरिका के संरक्षण में चला गया। सन् 1950 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जल सेना का जंगी जहाज 'सातवां बेड़ा' ताइवान और चीन के बीच के समुद्र में पहरेदारी करने भेजा। सन् 1954 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़न हावर ने ताइवान के साथ आपसी रक्षा संधि पर भी हस्ताक्षर किए। शुरू में 'रिपब्लिक ऑफ चाइना' (ताइवान) संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य था और चीन नहीं। धीरे-धीरे अमेरिका के संबंध चीन से अच्छे होने लगे और विश्व में चीन का दबदबा बढ़ने लगा तो सन् 1971 में चीन को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता मिल गई और चीन के दबाव में ताइवान की सदस्यता खारिज कर दी गई। चीन ने ताइवान को अपना प्रांत घोषित कर दिया। धीरे-धीरे चीन के राजनीतिक दबाव की वजह अन्य राष्ट्रों ने भी ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए।

ताइवान में सन् 2000 के चुनावों में स्वतंत्र ताइवान समर्थकों की जीत हुई किंतु चीन ने चेतावनी दे दी कि उसे ताइवान की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं है। आठ वर्षों के इस दल के शासन में कई बार ऐसे अवसर आए जब चीन और ताइवान युद्ध पर उतारू हो गए थे। चीन ने बारह सौ मिसाइलें ताइवान की ओर मुंह करके तान रखी हैं। दूसरी ओर ताइवान के पास एक बड़ी सेना है। सेना की संख्या, ताइवान की जनसंख्या का करीब एक प्रतिशत है। किसी भी किस्म की स्वतंत्रता घोषित करने या चीन के साथ एकीकरण में अनिश्चितकालीन विलंब करने के विरुद्ध ताइवान को कई बार चीन से धमकियां मिल चुकी हैं। सन् 2008 के चुनावों में सत्तारुढ़ दल की हार हुई। जो दल सत्ता में आया उसके नेता तथा ताइवान के वर्तमान राष्ट्रपति मा यिंग जू के बारे में माना जाता है कि वे चीन के साथ संघीकरण के समर्थक हैं इसलिए चीनी प्रशासन ने भी सन् 2008 से ताइवान के प्रति अपना रुख नरम कर लिया है। मा ने अपने कार्यकाल में चीन के साथ कई व्यापारिक और पर्यटन के समझौते किए।

पिछले सप्ताह सोमवार और मंगलवार को बीजिंग और ताइपेई के मंत्रिमंडल के सदस्य चीन के शहर नेनजिंग में मिले। मंत्री स्तर की यह वार्ता 65 वर्षों के पश्चात पहली बार हुई। ताइवान के नागरिक अपनी अंतरराष्‍ट्रीय पहचान पुन: प्राप्त करना चाहते हैं, किंतु राष्ट्रपति मा का रुख चीन के समर्थन में होने से स्वतंत्र ताइवान समर्थकों को मा के ऊपर विश्वास नहीं है। राष्ट्रपति मा इन्हीं कारणों से बहुत अलोकप्रिय हो चुके हैं। उधर चीन भी बहुत चतुराई से कदम उठा रहा है। कोई भी द्विपक्षीय वार्ता को वह अंतरराष्ट्रीय जामा नहीं पहनाना चाहता क्योंकि उसे यह दिखाना है कि कोई भी द्विपक्षीय वार्ता केंद्र और प्रांत के बीच में है, न कि दो देशों के बीच में। अतः वह शिखर सम्मेलन की मांग की भी अनदेखी कर रहा है।

सत्य तो यही है कि एक न एक दिन चीनी ड्रैगन, ताइवान को निगल लेगा। वटवृक्ष के नीचे कुकुरमुत्ते तो उग सकते हैं किन्तु पेड़ नहीं। बड़ी ताकतों के समक्ष छोटे असहाय हैं और अपनी नियति से मज़बूर। बहरहाल जितने दिन ताइवान स्वतंत्र रहेगा उतने दिन चीन की सत्ता करवटें बदलते रहने को मज़बूर होंगीं और ताइवानी नागरिक अपनी प्रजातांत्रिक स्वतन्त्रता का आनंद लेते रहेंगे। ताइवान एक बहुदलीय चुनावी प्रजातंत्र है जहां का मीडिया सशक्त और मानवाधिकार महत्वपूर्ण है, वहीं चीन ठीक इसके विपरीत गुणों वाला राष्ट्र है। दो विपरीत धाराओं का समागम प्राकृतिक नहीं होता, अतः चीन के लिए ताइवान की जनता को जीतने का मार्ग सुगम नहीं होगा, किन्तु इस परिवर्तनशील संसार में इतिहास किधर करवट लेगा, कह पाना मुश्किल है।

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