क्यों नाज़ है हमें भारत के प्रजातंत्र पर...

शरद सिंगी
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15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से ध्वजारोहण के पश्चात जब हमारे प्रधानमंत्री का भाषण होता है तो उसके मायने केवल परंपरा का निर्वहन या स्वतंत्रता का जश्न ही नहीं है। यह केवल राष्ट्र की जनता या सेना के लिए उद्बोधन भी नहीं है बल्कि भारतीय प्रजातंत्र और भारतीय नागरिकों का अपने प्रधानमंत्री के माध्यम से विश्व के राजनैतिक मंच पर एक घोष है, भारत में लोकतंत्र की सफलता का। यह एक सगर्व उद्घोषणा है हमारे एक सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष सफल राष्ट्र होने की। यह गर्जन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जबकि हम अपने ही आसपास के दिशाविहीन राष्ट्रों में हो रही निरंतर राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाओं के नित्य साक्षी बन रहे हैं।

15 अगस्त 1947 को देश जब आजाद हुआ तब संभवतः अनेक जानकारों के लिए भी यह नितांत अविश्सनीय था कि इस आज़ादी के साथ दुनिया के सबसे विशाल प्रजातंत्र की बुनियाद भी रखी जा रही है। आज़ादी के समय भारत के आम नागरिकों को प्रजातंत्र के स्वरूप और कार्यप्रणाली की शायद ही कोई सम्पूर्ण जानकारी रही हो किन्तु भारत का सौभाग्य मानिए कि उस समय भारत के पास ऐसे विद्वानों और निःस्वार्थ नेताओं की भरमार थी, जिन्होंने गुलामी से प्रजातंत्र का संक्रमण या यात्रा निर्विघ्न संपन्न करा दी। इस बात का अहसास हमें तब होता है, जब हम अपने पड़ोसी राष्ट्रों पर नज़र डालते हैं।

श्रीलंका, बांग्लादेश व नेपाल नाम के प्रजातांत्रिक देश हैं। हमारे साथ में ही आज़ाद होने वाले ये छोटे-छोटे देश अभी तक अपनी प्रजातंत्र की नाव को ठीक से पानी में उतार भी नहीं पाए हैं। पाकिस्तान का प्रजातंत्र एक कच्चीडोर से बंधा है, जिसका एक सिरा सेना ने पकड़ रखा है। किसी भी दिन तोड़ा जा सकता है। पूर्व में थाईलैंड और इंडोनेशिया प्रजातंत्र के बोझ को अभी तक उठा नहीं पा रहे हैं।

स्वतंत्रता की लड़ाई की तर्ज़ पर अरब देशों में भी तानाशाहों के विरुद्ध जनआंदोलन हुए। जनता को उन्हें हटाने में सफलता भी मिली, किन्तु ये राष्ट्र संभलने के बजाय और अराजकता में धंसते जा रहे हैं। तानाशाहों के हटने के बाद पश्चिमी देशों ने उन पर प्रजातंत्र थोपने की कोशिश की किन्तु प्रजातंत्र का बोझ ये राष्ट्र भी नहीं उठा सके और उस के बोझ के तले उठने से पहले ही जमींदोज़ हो गए।

वैश्विक समुदाय द्वारा अफगानिस्तान, इराक और अरब देशों में प्रजातंत्र थोपने के प्रयास किए जा रहे हैं किन्तु परिणाम अनुकूल नहीं मिल रहे हैं। ये राष्ट्र अधर में है जहां न तो कोई कम्युनिस्ट आधार है और नही ऐसा कोई शक्ति सम्पन्न और सर्वमान्य नेता है, जो अधिनायक बनकर राष्ट्र को सही दिशा दे सके। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आज़ादी के समय भारत की भी लगभग यही स्थिति रही होगी तो भारत में प्रजातंत्र इतना सफल क्यों रहा?

प्रजातंत्र में दो प्रमुख प्रणालियां होती हैं। एक राष्ट्रपति प्रणाली और दूसरी संसदीय प्रणाली। राष्ट्रपति प्रणाली में जनता स्वयं अपना राष्ट्रपति चुनती है और राष्ट्रपति सीधे जनता के प्रति उत्तरदायी होता है न कि संसद के प्रति। राष्ट्रपति प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका बिलकुल अलग-अलग होती हैं। राष्ट्रपति तो सीधे जनता द्वारा चुना ही जाता है पर उसके मंत्रिमंडल के सदस्य भी संसद से नहीं हो सकते। राष्ट्रपति को स्वयं अपनी टीम पेशेवर लोगों में से चुनकर बनानी होती है। हाँ, संसद केवल मंत्रिमंडल के मनोनीत सदस्यों के नामों पर मुहर लगाती है। दूसरी प्रणाली भारत की तरह संसदीय प्रणाली है जहाँ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों का चुनाव परोक्ष रूप से जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। मंत्रिमंडल का सदस्य भी संसद का सदस्य होना अनिवार्य है। अतः यहाँ विधायिका और कार्यपालिका मिश्रित है।

विभिन्न देशों में इस समय प्रजातंत्र का राष्ट्रपति मॉडल लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो अमेरिका का सफल मॉडल है। किन्तु यह मॉडल अन्य देशों में असफल होता दिखाई दे रहा है। विश्लेषण करें तो पाएंगे कि प्रजातंत्र की राष्ट्रपति प्रणाली सत्ता में विभिन्न धर्मों, प्रजातियों, वर्गों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने में असफल होती दिख रही है।

हर धर्म का अनुयायी, राष्ट्रपति पद पर अपने धर्म का उम्मीदवार चाहता है तो हर क्षेत्र का नागरिक अपने क्षेत्र का वर्चस्व चाहता है। ऐसे में विश्व समुदाय को चाहिए कि वे भारत की संसदीय प्रणाली का अध्ययन करें क्योंकि भारत जैसी विविधता किसी अन्य देश में नहीं है। इतनी विविधताओं के बावजूद भारत एक सफल लोकतांत्रिक देश है, क्योंकि उसकी संसदीय प्रणाली व्यापक है और उसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना अन्तर्निहित है।

यह कम गर्व की बात नहीं है कि भारत की जनता द्वारा आत्मसात की गई प्रजातंत्र की यह प्रणाली विश्व में एक मिसाल है। पिछले चुनावों में क्षेत्रीय दलों और महत्वाकांक्षी नेताओं के परों को कुतरकर जनता ने एक बार फिर इस प्रणाली का आधार सुदृढ़ किया है। जनता ने धर्म, जाति, वर्ग और क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर मतदान किया जो आज किसी भी विकासशील प्रजातंत्र के लिए एक उदाहरण है। लोकतंत्र के इस पर्व पर आइए हम अपनी पीठ थपथपाएं और इस प्रजातंत्र को और भी सक्षम तथा कुशल बनाने के हमारे प्रयास जारी रखें।

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