पुराने मांजे से नई पतंग भला कित्ती उड़ेगी?

अजय बोकिल
गुरुवार, 16 जनवरी 2014 (14:21 IST)
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को खां, सिस्टम इत्ता हेरान-परेशान कभी नई दिखा, जित्ता इस बार नजर आया। परेशानी इस बात पे नई हे के लोग उससे बदलने की उम्मीद कर रिए हें बल्के इस वास्ते हे के 'आप' से लेके 'बाप' तक इसी की खा रिए हें ओर इसी को गरिया रिए हें।

नया फेशन चल गया हे के जो पुराना हे, उसे बदलो। जो बाप के नाम से चल रिया हे, उसे आप के नाम पे धकाओ। मतलब ये के जिस पतंग को उड़ा रिए हें, उसी का मांजा काटने की बात हो रई हे। ये क्या तरीका हुआ, हमे ई बदल दोगे तो दुकान कोन के बूते चलाओगे?

मियां, इस मुल्क में अंगरेजों के जमाने से ई सिस्टम बदलने की खुराफातें चल रई हें। सिस्टम ने जब अपनी जनम कुंडली दिखवाई तो पता चला के उसका गुरु तो हमेशा से तगड़ा रिया हे। उसका कोई कुछ बिगाड़ना चाहे भी तो नई बिगाड़ सकता। उसे सारी इनर्जी अपने भीतर से मिलती हे। उसे कोई ने बनाया नई, वो खुद अपने वजूद में आ गया हे।

लोग उसके चेहरे को किसी एक एंगिल से देखने की कोशिश करते रेते हें ओर उसी में तब्दीली लाने का दम भरते रेते हें। मगर वो हे के खरे की माफिक कभी नई बदलता। कोई ने गुस्से में सिस्टम के पिछवाड़े भी चोट करी तो वो हंसने लगता हे। ये सोचकर के क्या उखाड़ लोगे मेरा।

खां, सिस्टम की भेड़चाल से पुरानी दोस्ती हे। दोनो अपनी वर्दी आसानी से बदल लेते हें। कभी उसने ये चाल आजादी की लड़ाई के नाम पे देखी तो कभी मेहनतकशों की लामबंदी के नाम पे देखी। कभी वो समाजवाद का रुप धर के आई तो कभी मंदिर ओर मंडल की खाल ओढ़ के आई।

कभी उसने जात-पांत का मुखोटा ओढ़ा तो कभी छुट्टे आर्थिक सांड की तरह लाज-शरम की हर दीवार को ढहाने की कोशिश करी। जब खास लोगों का समाज पे कब्जा होता दिखने लगा तो वो आम आदमी के नाम से सड़कों पे निकल पड़ी। अभी भेड़चाल का करसर इसी पे अटका हुआ हे। कुछ दिन बाद नई फाइल खुल जाएगी।

सिस्टम बोला के मियां, हेरानी इसी बात पे हे के लोग हमे बनाते ई इस नीयत से हें के उनकी दुकान चले। अभी कोन से फरक पड़ रिया हे। बस, लोग पुरानी दुकान पे नया बोर्ड लगवाना चाह रिए हें। सब को टोपी पिन्हाना चाह रिए हें। पर सवाल ये हे के मुझे बदलने के नारे से वोट ओर नोट भले मिल जाएं, पर खोट का इलाज कोन करेगा? मेरी खोट में ई तो दुकानदारी का खाद-पानी हे। लिहाजा मुझे कोई क्यूं बदलना चाहेगा। मेंने कोई का क्या बिगाड़ा हे?

याद रहे मेरी वजह से आप हो। 'आप' की वजह से में नई हूं। मेरे होने से फायदा ये हे के आप सब मुझे गाली देके अपना उल्लू सीधा कर सकते हो। मुझे यानी सिस्टम बदलने के लिए आदमी को बदलना पड़ेगा, उत्ती रिस्क लेने लफड़े में कोन पड़ेगा? फिर भी दावा मुझे बदलने का हे। नई पतंग उड़ाने से पेले डोर तो बदलो बाबू! पुराने मांजे से नई पतंग भला कित्ती उड़ेगी?
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