यूरोप के सबसे दीन-हीन भारतवंशी

राम यादव
12 से 13 फरवरी, 2015 तक दिल्ली के आजाद भवन में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय रोमा कांफ्रेंस एंड कल्चरल फेस्टिवल का आयोजन किया। इस मौके पर विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भारत आपका है और आप भारत के हैं।

दुनिया के 30 देशों में इस समुदाय के करीब 2 करोड़ लोग हैं, जो खुद को भारतीयों का वंशज बताते हैं। इनमें भारत की डोम, बंजारा, गुर्जर, सांसी, चौहान, सिकलीगर, डागर आदि जातियों के लोग हैं। सम्मेलन के दौरान रोमा समुदाय के दावे भी चौंकाने वाले थे। इनके मुताबिक ख्यात संगीतकार एल्विस प्रेसली, चित्रकार पाब्लो पिकासो, कॉमेडियन चार्ली चैपलिन भी रोमा यानी भारतवंशी थे। प्रसंगवश इसे पुन: पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं...
 
यूरोप में भारत की तरह जात-पांत नहीं होती। तब भी, हर यूरोपीय देश में निपट दीन-हीन लोगों का एक ऐसा समुदाय भी है, जिसकी हालत भारत के दलितों से भी गई-गुज़री है। विडंबना यह है कि उनके पूर्वज भारत से ही आए थे। वे रोमा और सिंती कहलाते हैं। यूरोप के सबसे बड़े जातीय अल्पसंख्यक हैं। लेकिन, हर जगह कुत्तों की तरह दुत्कारे ही जाते हैं। भारत भी उन्हें कभी याद नहीं करता। 

इस्तवान पिसोंत की गणना हंगरी के सबसे होनहार फुटबॉल खिलाड़ियों में होती थी। 1980 वाले दशक में वह "होनवेद बुडापेस्ट" क्लब के लिए खेला करता था। खेल-समीक्षकों से लेकर दर्शकों तक का दुलारा था। बहुत युवा था। अपनी प्रसिद्धि को अपनी सिद्धि मान बैठा। 18 साल का होते ही एक टेलीविज़न इंटरव्यू में कह बैठा कि उसके माता-पिता "रोमा" हैं। इसके बाद तो वह फुटबॉल प्रेमियों की नज़रों में ऐसा गिरा कि हीरो से ज़ीरो बन गया। भद्दी फ़ब्तियाँ कसी जानें लगीं, "साला बंजारा है...बंजारा..."

इस्तवान पिसोंत इस बीच 42 साल का है। अपने देश के दर्शकों से दुखी होते हुए भी राष्ट्रीय ही नहीं, 31 अंतरराष्ट्रीय मैचों में भी खेल चुका है। कहता है, हंगरी के कई नामी फुटबॉल खिलाडी रोमा हैं। पर, अपने अपमान और तिरस्कार के डर से वे कभी यह कहने की हिम्मत नहीं करते कि उनकी पारिवारिक पृषठभूमि रोमा बंजारों की है।

हंगरी की क़रीब एक करोड़ की जनसंख्या में छह लाख रोमा हैं। उन के नाच-गाने तो पसंद किये जाते हैं, पर आये दिन हमले होना, उनके घर-द्वार जला देना और पुलिस द्वारा उन्हें तंग करना भी आम बात है। आगे पढ़ें... लोकतंत्र में रोमा सं‍त्रस्त...

लोकतंत्र में रोमा संत्रस्त : हंगरी ही नहीं, दो
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दशक पूर्व पूर्वी यूरोप की कम्युनिट सरकारों के पतन के बाद से वहाँ के हर देश में- चाहे वह रोमानिया है या बुल्गारिया, सर्बिया है या क्रोएशिया, चेक गणराज्य है या स्लोवाकिया, बोस्निया है मेसेडोनिया- भारतीय पूर्वजों वाले रोमा और सिंती लोगों की हालत बद से बदतर हो गई है। सिंती लोग भी रोमा बिरादरी की ही एक उपजाति हैं। दोनों निपट ग़रीब हैं। अनपढ़ हैं। बदनाम कर दिये गए हैं कि भीख माँगने या चोरी करने के सिवाय कुछ नहीं जानते।

लोग उन्हें अपने पास-पड़ोस में फटकने तक नहीं देते। अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं। न उन्हें कोई घर-द्वार मिलता है और न नौकरी-धंधा। यह सब पहले भी था। लेकिन, जब से पू्र्वी यूरोप के भूतपूर्व समाजवादी देशों में "लोकतंत्र" आया है, तब से उनके साथ मनमानी करने की मानो छूट मिल गई है।

नौबत यहाँ तक आ गई है कि पू्र्वी यूरोप के देशों के हज़ारों रोमा और सिंती अपनी ग़रीबी और मजबूरी से तंग आ कर पश्चिमी यूरोप के जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड या बेल्जियम जैसे देशों में शरण माँगने लगे हैं। पर, कोई देश उन्हें शरण नहीं देना चाहता। भारत जैसे देशों को हर गाहे-बगाहे अल्पसंख्यकों के साथ न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा का उपदेश देने वाले पश्चिमी यूरोपीय देश, अपने सारे आदर्श भुला कर, हर समय उन्हें निकाल बाहर करने की ही फ़िराक में रहते हैं।

अजीब बात तो यह है कि जर्मनी और फ्रांस जैसे देश सीरिया, ईरान या तुर्की से आने वाले 'विधर्मी' शरणार्थियों के प्रति तो उदारता दिखाते हैं, जबकि अपने ही यूरोपीय संघ के रोमानिया, बुल्गारिया या स्लोवाकिया से आने वाले 'स्वधर्मी' (ईसाई) रोमा शरणार्थियों को खदेड़ बाहर कर देते हैं।

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोला सार्कोज़ी ने तो वहाँ पिछले चुनावों से पहले अवसरवादिता की हद ही कर दी। रोमानिया से आए हज़ारों रोमा शरणार्थियों को यह सोच कर बैरंग वापस भेज दिया कि इससे फ्रांसिसी जनता खुश हो जाएगी। चुनाव में उनकी जीत पक्की हो जाएगी, हालाँकि वे चुनाव फिर भी हार गए। फ्रांस से निकाल बाहर करने के इस अभियान को सार्कोज़ी ने नाम दिया था "स्वदेश वापसी के लिए मानवीय सहायता।" आगे पढ़ें... हिटलर की बलि चढ़े 5 लाख रोमा...

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हिटलर की बलि चढ़े 5 लाख रोमा : यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति जर्मनी भी दूध का धुला नहीं है। हिटलर की तानाशाही के समय यूरोप के 60 लाख यहूदियों के जातिसंहारक पाप का प्रायश्चित करते रहना जर्मनी में शाश्वत राजधर्म बन गया है। लेकिन, इस बात पर यथासंभव पर्दा ही डाला जाता रहा है कि यहूदियों की ही तरह जो पाँच लाख रोमा और सिंती भी मौत के घाट उतार दिये गए थे, उनके वंशजों के प्रति भी तो जर्मनी का कुछ कर्त्तव्य बनता है।

उन पर जो कुछ बीती है, उस बारे में खोजपू्र्ण पुस्तकें आदि अब प्रकाशित होना शुरू हुई हैं। 2012 में प्रकाशित ऐसी ही कुछ पुस्तकों के अनुसार, हिटलर के शासनकाल में जर्मनी में क़रीब 30 हज़ार रोमा और सिंती रहते थे। उन में से 90 प्रतिशत औरतों, बच्चों और मर्दों को यातनाशिविरों में ठूँस कर मौत के घाट उतार दिया गया। यही हाल यूरोप के उन देशों के रोमा और सिंतियों का भी हुआ, जिन पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में हिटलर की सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया था। उनकी संख्या साढ़े चार से पाँच लाख तक आँकी जाती है।

अनुमान है कि जर्मनी में आम तौर पर सिंती कहलाने वाले इस समय एक लाख 40 हज़ार रोमा रहते हैं। उनके पूर्वज कोई 600 वर्ष पूर्व जर्मनी पहुँचे थे। उन्हें भी वैसे ही दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों के बीच जीना पड़ता है, जो पूर्वी यूरोप के देशों में प्रचलित हैं। संयुक्त राष्ट्र के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, इस बीच भूतपूर्व युगोस्लाविया वाले दोशों से आए क़रीब 50 हज़ार रोमा जर्मनी में शरण पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। 30 हज़ार को अस्थाई तौर पर रहने की अनुमति मिली हुई है, जबकि बाक़ी को वापस जाना पड़ेगा। इन सब को वास्तव में जर्मनी ने खुद ही शरणार्थी बनाया है। 1990 वाले दशक में जर्मनी की अगुआई में पश्चिमी देशों ने भूतपूर्व युगोस्लाविया में जातीय विद्वेश फैला कर उसे यदि टुकड़े-टुकड़े न किया होता, तो उन्हें अपने घरों से न तो भागना और न ही शरणार्थी बनना पड़ता।

जिन नए रोमा शरणर्थियों को को इन दिनों लौटाया जा रहा है, वे मुख्य रूप से मेसेडोनिया और सर्बिया से आए हैं। दोनों देश युगोस्लाविया के टूटने से बने हैं और अब यूरोपीय संघ की सदस्यता पाने को लालायित हैं। उनके नागरिक 2010 से बिना वीसा के जर्मनी आ-जा सकते हैं। अतः जर्मनी अब दोनो देशों पर दबाव डाल रहा है कि वे अपने यहाँ के रोमा लोगों को जर्मनी आने से रोकें, वर्ना उनके सभी नागरिकों के लिए वीसा लेना फिर से अनिवार्य कर दिया जाएगा। साथ ही यूरोपीय संघ में उनकी प्रस्तावित सदस्यता भी खटाई में पड़ जायेगी।

दोनों देश अब अपनी सीमाओं और हवाई अड्डों पर उन लोगों को रोकने-टोकने और उनसे गहरी पूछतांछ करने लगे हैं, जो रोमा-जैसी बोल-चाल और वेश-भूषा वाले, किंचित साँवले या गेहुँए रंग के दिखते हैं। मेसेडोनिया में तो देश छोड़ने का प्रयास कर रहे रोमा लोगों या उनकी मदद करने वालों को चार साल तक की जेल की सज़ा भी हो सकती है। आगे पढ़ें... भारत से पहुँचे थे यूरोप रोमा...

भारत से पहुँचे थे यूरोप :
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जर्मनी के कोलोन शहर के पास रोमा बच्चों के लिए एक अलग स्कूल है। स्वयं रोमा बिरादरी द्वारा संचालित इस विशेष स्कूल में रोमा शरणार्थियों के 6 से 13 साल तक के 22 बच्चों को दो साल के भीतर किसी सामान्य जर्मन स्कूल में पढ़ने लायक बनाया जाता है। स्कूल का नाम है "अमारो खेर।" रोमानी भाषा में इस नाम का अर्थ है "हमारा घर।" साफ़ है कि "घर" का "खेर" भले ही बन गया है, राजस्थान इत्यादि में प्रचलित "अमारो घर" सदियों के समय और हज़ारों किलोमीटर की दूरी के बाद भी अपनी छाप बनाए हुए है।

खानाबदोशों की तरह सदियों से घुमंतू बंजारा जीवन बिताने वाले रोमा लोगों ने लिखने-पढ़ने में कभी दिलचस्पी नहीं ली। इसीलिए, उनके पास अपना कोई लिखित साहित्य, इतिहास या ऐसे दस्तावेज भी नहीं हैं, जिनसे साफ़ पता चल सके कि वे कब और कहाँ से यूरोप पहुँचे। वे जब जहाँ पहुँचे, वहीं के बन गए। वहाँ प्रचलित धर्मों और नामों को तो अपना लिया। पर, अपने रीति-रिवाज़, रहन-सहन, गीत-संगीत और पुरानी बोल-भाषा को यथासंभव संजोए रखा। उन्हीं के आधार पर भाषाविदों और इतिहासकारों का 18वीं सदी के बाद से यही मानना रहा है कि वे कोई एक हज़ार साल पहले भारत के उन हिस्सों से चले थे, जो आज राजस्थान, सिंध और पंजाब कहलाते हैं। समय के साथ वे तीन चरणों में पूरे यूरोप में फैल गए। पश्चिमी यूरोप मे उनका फैलना 15वीं सदी में शुरू हुआ। रोमा लोगों ने कब छोड़ा भारत... आगे पढ़ें...

11 वीं सदी में भारत छोड़ा : इन विद्वानों
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का यह भी कहना है कि आज की विभिन्न रोमा उपजातियों के बीच हालाँकि कई प्रकार की बोलियाँ और भाषाएँ मिलती हैं, पर उनके मूल शब्द, बहुत से संखायावाचक और पारिवारिक संबंधसूचक शब्द, शारीरिक अंगों और कार्यकलापों के नाम भारतीय उद्गम के ही हैं। उनकी बोलियों-भाषाओं पर हिंदी, संस्कृत और पश्चिमोत्तर भारत की बोलियों की छाप का यही अर्थ होना चाहिये कि उनके पूर्वज भारत के इसी भाग से चल कर यूरोप तक पहुँचे। भारत से वे कब और क्यों चले, इस बारे में सबसे प्रचलित सिद्धांत यही है कि उन्हें 11 वीं सदी में भारत पर महमूद गज़नी के आक्रमण के बाद पलायन करना पड़ा, क्योंकि वे हिंदू थे और अपने इस्लामीकरण से बचना चाहते थे।

पश्चिमी इतिहासकारों के एक वर्ग का यह भी कहना है कि रोमा जनजातियों के पूर्वज अधिकतर ऐसे अनार्य सैनिक भी रहे हो सकते हैं, जिन्हें शायद महमूद गज़नी से पहले के इस्लामी आक्रमाणकारियों से तंग आ गए उस समय के भारतीय राजाओं को अपनी सेनाओं में भर्ती करना और उन्हें "क्षत्रियों" जैसा ओहदा देना पड़ा था। वे मूल रूप से डोम, लोहार, गुज्जर और टांडा जाति के थे; राजस्थान, पंजाब और सिंध जैसे भारत के पश्चिमी अंचलों में रहा करते थे और मुस्लिम आक्रमणकारियों का पीछा करते-करते ईरान के रास्ते से पश्चिम एशिया तक पहुँच गए।

भारत से कट जाने और पश्चिम एशिया में पैर जमाए इस्लाम से लोहा लेन में असमर्थ होने के कारण हो सकता है कि वे उत्तर की ओर मुड़ कर रोमानिया जैसे पूर्वी यूरोपीय देशों में पहुँचे हों। स्मरणीय है कि रोमानिया में आज भी 24 लाख, यानी पूरे यूरोप में सबसे अधिक रोमा रहते हैं।

रोमा बिरादरी की सिंती जाति के बारे में कहा जाता है कि, "सिंती" नाम सिंधी से ही बना होना चाहिए, यानी उनके पूर्वज सिंध के रहे होंगे। वे स्वयं भी यही मानते हैं। उल्लेखनीय यह भी है की रोमा बिरादरी की एक जाति ऐसी भी है, जिसका नाम "मानुषी" (मनुष्य) है। रोमानी भाषा में "रोमा" का अर्थ भी मनुष्य ही है। भारतवंशी होने की वैज्ञानिक पुष्टि... आगे...

भारतवंशी होने की वैज्ञानिक पुष्टि : नवंबर 2012 में
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इस बात की हर संदेह से परे वैज्ञानिक पुष्टि भी मिल गई है कि यूरोप के सबसे बड़े जातीय अल्पसंख्यकों सिंती और रोमा के पूर्वज पश्चिमोत्तर भारत के रहने वाले भारतीय ही थे। विज्ञान पत्रिका "करंट बायॉलॉजी" में प्रकाशित अपने एक शोधपत्र में नीदरलैंड में रोटरडाम के एरास्मुस विश्वविद्यालय के मान्फ्रेड काइज़र ने लिखा है कि रोमा और सिंती बिरादरी के पू्र्वज क़रीब 1500 साल पहले भारत में रहा करते थे। क़रीब 900 साल पूर्व, यानी 11वीं-12वीं सदी में, वे बाल्कन प्रायद्वीप (यूनान, रोमानिया, बुल्गारिया, भूतपूर्व युगोस्लाविया) के रास्ते से यूरोप में फैलने लगे थे।

मान्फ्रेड काइज़र और उनके सहयोगी वैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष इतिहासकारों की कालगणना और पश्चिमी भारत पर इस्लामी आक्रमणों संबंधी उनके अनुमानों से मेल खाता लगता है। काइज़र की टीम ने उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी यूरोप में रहने वाली रोमा बिरादरी की 13 उपजातियों से जुड़े 152 लोगों के जीनों का तुलनात्मक अध्ययन किया है।

उनका कहना है कि भारत से चलने के बाद वाले आरंभिक चरण के उनके जीनोम (समग्र जीनों) में पश्चिम एशिया, मध्य एशिया या कॉकेशिया के निवासियों के जीनों की मिलावट नहीं मिलती। यानी, शुरू-शुरू में वे एक ही समुदाय रहे और आपस में ही शादी-विवाह करते रहे। लेकिन, बाद में वे कई हिस्सों में बंट गए और अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। तब, नई जगहों के स्थानीय लोगों के साथ भी उनका मेलजोल होने लगा।

काइज़र लिखते हैं, "रोमा लोग हालाँकि आज भी बहुत कम ही स्थानीय लोगों से शादी-विवाह करते हैं, तब भी उनके जीनों में स्थानीय वैवाहिक संबंधों के आनुवंशिक निशान भी मिलते हैं।"

उनके जीनोम में मिलने वाले नए जीन अधिकतर हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, क्रोएशिया या स्लोवाकिया के मूल निवासियों से संबंध रखते हैं, जहाँ वे सबसे लंबे समय से और कहीं अधिक संख्या में बसे हुए हैं। वे रोमा, जो पश्चिमी यूरोप के स्पेन, पुर्तगाल या जर्मनी जैसे देशों मे रहते हैं, उनके जीनोम में स्थानीय लोगों के जीनों की संख्या बहुत कम ही मिलती है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पश्चिमी यूरोप के निवासी रोमा और सिंती लोगों को क्योंकि हेय दृष्टि से देखते और उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं, इसलिए उनसे दूर ही रहते हैं। आगे पढ़ें... दिया तले अंधेरा...

दिया तले अंधेरा : उल्लेखनीय
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यह भी है कि भारतीय पूर्वजों की संतान रोमा और सिंती 19वीं सदी के मध्य तक यूरोप के कई देशों में गुलामों की तरह बेंचे-ख़रीदे भी जाते थे। जिस तरह जानवरों व मवेशियों की पहचान के लिए उन्हें तपते लोहे से दागा जाता है, उसी तरह रोमा और सिंती लोगों को भी दागा जाता था। यह सब अब नहीं होता, पर किसी भी देश के समज में उन्हें वह मानवीय समानता अब भी नहीं मिल पाई है, जिसका यूरोप के देश दुनिया भर में ढोल पीटते हैं।

एम्नेस्टी इंटरनैशनल की तरफ से यूरोपीय संघ के देशों में रोमा और सिंती बिरादरी की दयनीय स्थिति पर नज़र रखने वाली जर्मनी की मारी फ़ॉन म्यौएलनडोईफ़ का कहना है कि उनकी "स्थिति अब भी बहुत ख़राब है। वे यूरोपीय संघ के सभी देशों में जातीय अल्पसंख्यक हैं। स्कूलों में उनके बच्चों को दूसरे बच्चों से अलग अक्सर रोमा-कक्षाओं में ठूँस दिया जाता है। वहाँ उन्हें एक बहुत ही संक्षिप्त पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाया जाता है। यानी, उन्हें शुरू से ही वे अवसर नहां दिये जाते, जो दूसरों को मिलते हैं।" अपमान से बचने के लिए पहचान छिपाते हैं... आगे पढ़ें...

अपमान से बचने के लिए पहचान छिपाते हैं : यूरोप में
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रहने वाले रोमा लोगों की सही संख्या कोई नहीं जानता। अपने अपमान और तिरस्कार से बचने के लिए वे अपनी सही पहचान को छिपाने की कोशिश करते हैं। तब भी माना यही जाता है कि वे ही यूरोप का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक जातीय समुदाय हैं। उनकी संख्या एक करोड़ तक हो सकती है। उनकी मुख्य भाषा "रोमानी" के बोलने वालों की संख्या 35 लाख से अधिक आँकी जाती है। "रोमानी" पर भारत की आर्य भाषाओं के साथ-साथ यूरोप की स्थानीय भाषाओं का भी काफी असर देखने में आता है।

43 साल पहले, 1970 में लंदन में रोमा बिरादरी का पहला विश्व सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन में आए 25 देशों के रोमा प्रतिनिधियों ने अपनी बिरादरी का एक अलग झंडा और राष्ट्रगीत भी तय किया, हालाँकि वे जिस किसी भी देश में रहते हैं, अपने आप को उसी देश का पुराना नागरिक मानते हैं। इसी सम्मेलन में 8 अप्रैल 1970 को यह भी तय हुआ कि दूसरे लोग उन्हें चाहे जिस हेय-सूचक नाम से पुकारें, वे अपने आप को हमेशा रोमा ही कहेंगे और इसी नाम की मान्यता व अपने लिए समानता की माँग करेंगे। तब से 8 अप्रैल हर साल अंतरराष्ट्रीय रोमा दिवस के तौर पर मनाया जाता है। यूरोप के मीडिया में इसकी थोड़ी-बहुत चर्चा तो होती है, पर उनके पूर्वजों के देश भारत में तो भूल कर भी कोई चर्चा नहीं होती।

भारत उन्हें भले ही न याद करे, विश्व भर के सभी देशों के रोमा लोगों ने भारत के अशोक-चक्र को ही एकमत से अपनी पहचान का प्रतीक चुना है। उनका समुदाय संसार का एकमात्र ऐसा समुदाय है, जो यहूदियों, कुर्दों या (अरबी राष्ट्रवाद का हिस्सा होते हुए भी) फ़िलस्तनियों की तरह कोई अलग जनता या अलग राष्ट्र होने अथवा नया देश देने की माँग नहीं करता। जिसका न कोई नेता है और न कोई आन्दोलन है। जो न पृथकतावादी है और न आतंकवादी। शायद इसीलिए उसकी इस प्रर्थना को भी कोई नहीं सुनता कि वह जहाँ भी है, उसे वहीं का बन कर रहने दिया जाए। अपने ढंग से जीने-रहने, गाने-बजाने और नाचने दिया जाए। जिप्सी या बंजारा नहीं, बस "रोमा" (मनुष्य) कहा और यही समझा जाए।

रोमा लोग वैसे तो इस बीच अमेरिका, ब्राज़ील और तुर्की में भी मिलते हैं, लेकिन उनका मुख्य निवासक्षेत्र यूरोप ही है। यूरोप के विभिन्न देशों में उनकी अनुमानित संख्या इस प्रकार हैः रोमानिया 2400000, बुल्गारिया 800000, स्पेन 800000, रूस 600000, हंगरी 600000, सर्बिया 500000, तुर्की 500000, स्लोवाकिया 450000, फ्रांस 400000, मेसेडोनिया 250000, चेक गणराज्य 250000, ग्रीस 220000, यूक्रेन 200000, ब्रिटेन 150000, जर्मनी 140000, इटली 100000, अल्बानिया 100000, बोस्निया 80000, पुर्तगाल 50000, पोलैंड 45000, क्रोएशिया 40000, स्वीडन 40000, आयरलैंड 35000, बेल्जियम 35000, स्विट्ज़रलैंड 35000, नीदरलैंड 35000, ऑस्ट्रिया 25000, कोसोवो 20000, मोन्टेनेग्रो 20000, बेलारूस 15000, लातविया 12000, फ़िनलैंड 12000, स्लोवेनिया 10000, नॉर्वे 4000, डेनमार्क 4000, लिथुआनिया 4000, एस्तोनिया 1500।
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