- मधुसूदन आनन् द मैं उत्तरप्रदेश के एक छोटे से कस्बे में पैदा हुआ और फिर इंटरमीडिएट करने के बाद पढ़ने के लिए बाहर निकल आया। उसके बाद दिल्ली में बस गया। छोटे-छोटे दो-तीन अंतरालों को छोड़कर पिछले 37 सालों से मैं दिल्ली में ही रह रहा हूँ। विदेश में भी रहा, जहाँ बेहद अजनबीपन लगता था। दिल्ली में ऐसा अजनबीपन तो नहीं लगता, लेकिन यह भी नहीं लगता जैसे दिल्ली मेरी हो। मेरी दिल्ली मेरी शान तो बिलकुल भी नहीं। पर दिल्ली की सुविधाओं की ऐसी आदत पड़ गई है कि अब वापस कस्बे में भी नहीं रहा जा सकता। यहाँ बिजली, पानी की तो सुविधा है।
नाटक, संगीत, साहित्य और मित्रों से विचार-विमर्श का माहौल है।
शहर हमें शरण देते हैं, हमें सँभालते हैं, सँवारते हैं और हमें बनाते भी हैं। कस्बों से आए हम लोग धीरे-धीरे यहीं के हो जाते हैं। इनके आदी। मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है। उसे समाज चाहिए
उत्तर भारत के तमाम कस्बों की तरह मेरे कस्बे में इसका अभाव है। मेरे पिता 80 साल के हैं। वे मेरे पास दिल्ली आते हैं तो हफ्तेभर बाद ही वापस जाने की जिद करने लगते हैं। इसी तरह मैं भी दो-चार दिन से ज्यादा वहाँ नहीं टिक पाता। मैं वहाँ अजनबी नहीं हूँ, बल्कि अपने को सरोकारहीन पाता हूँ। माँ-बाप से ऊष्मा तो जरूर मिलती है और मानसिक रूप से अपनी जड़ों और जगह से जुड़े रहना शक्ति भी देता है, पर फिर भी अब वहाँ रहा नहीं जा सकता। दूसरी ओर दिल्ली अपना शहर नहीं लगता लेकिन फिर भी यहाँ रहना बिलकुल भी बुरा नहीं लगता।
यहाँ मेरा घर मेरे लिए किला है, जिसमें रहते हुए मुझे लगता है कि मैं पूरी तरह सुरक्षित हूँ। मेरे दोस्त कहते हैं कि बाहर रहते हुए मैं अधीर रहता हूँ और ऐसा दिखाता हूँ जैसे घर पहुँचने की जल्दी में हूँ। अपना घर सभी को अच्छा लगता है, लेकिन हमारे बच्चे छुट्टी के दिन भी ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर बाजारों में, मॉल और मल्टीप्लैक्स में दोस्तों के साथ बिताते हैं। वे दिल्ली में ही पैदा हुए और यहीं पढ़े-लिखे। इसलिए उन्हें दिल्ली अपना लगता है। वे मेरे कस्बे में बसने क्या, वहाँ कुछ ज्यादा दिन रहने का प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं करते।
वहाँ पैदा हुआ मेरा भतीजा देहरादून में पढ़ता है और दिल्ली को अपना नेटिव प्लेस बताता है, क्योंकि दिल्ली से उसने 12वीं की परीक्षा पास की थी। उसे दिल्ली ही पसंद है क्योंकि दिल्ली उसे ज्यादा स्पेस देती है। वह समय की रफ्तार से चलती है और वह समय के साथ चलना चाहता है।
तो मेरे पिता दिल्ली में बिलकुल भी रहना नहीं चाहते, मुझे दिल्ली अपनी नहीं लगती पर मैं दिल्ली में ही रहना चाहता हूँ और मेरे भतीजे को दिल्ली ही अपनी लगती है और वह दिल्ली से ही अपने को सबसे ज्यादा जुड़ा पाता है। उसका कहना है कि कस्बे में लाइफ बेहद सुस्त है और उत्तराखंड की राजधानी होने के बावजूद देहरादून में जीवन की रफ्तार धीमी है। दिल्ली में रफ्तार तेज है, यहाँ नए-नए लोग मिलते हैं और जीवन में हमारी दिलचस्पी बढ़ाते हैं।
यहाँ के जीवन में एक थ्रिल है। देश और दुनिया से जुड़े होने का माहौल है और कस्बों की तरह यहाँ कोई आपके जीवन में दखल नहीं देता। आप जैसे जीना चाहें जी सकते हैं और जैसे रहना चाहें, रह सकते हैं। यहाँ आपको कई मौके भी मिलते हैं और कई संघर्षों से भी गुजरना पड़ता है। यहाँ फन (मजा) भी है और संघर्ष भी। मनोरंजन भी और बाजार भी। यहाँ आकर्षण ही आकर्षण है। इसलिए इस शहर से सहज ही जुड़ाव हो जाता है। बस पैसा चाहिए।
शहर हमें शरण देते हैं, हमें सँभालते हैं, सँवारते हैं और हमें बनाते भी हैं। कस्बों से आए हम लोग धीरे-धीरे यहीं के हो जाते हैं। इनके आदी। मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है। उसे समाज चाहिए। समाज से संवाद करने वाली भाषा चाहिए और वह पर्यावरण चाहिए जिसमें उसकी उपस्थिति घुल-मिल भी जाए और फिर भी कुछ अलग लगे। जैसे मोर्चे पर लड़ने वाले हर जवान का अलग व्यक्तित्व होता है, हालाँकि वर्दी में सब एक जैसे दिखाई देते हैं।
या जैसे मोर्चे पर लड़ने वाले जवान पत्तियाँ-टहनियाँ लगाकर और ओढ़कर सायास दृश्य में विलीन हो जाते हैं या उसका प्राकृतिक हिस्सा बन जाते हैं और गोली दागकर ही अपने अस्तित्व का पता देते हैं। हम मनुष्यों को भी ऐसे ही घुल-मिलकर शहरों और कस्बों में रहना पड़ता है और ऐसे ही अपने अलग आस्तित्व का एहसास कराना पड़ता है। सभी एक जैसे लेकिन सभी विशिष्ट। एक समाज से निकलकर किसी दूसरे समाज में जड़ें जमाना आसान नहीं होता। नागरिकता, धर्म, भाषा और जाति की दीवारें आपके व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रहती हैं।
जब राष्ट्र-राज्य का विचार भी सामने नहीं आया था तब हिन्दू धर्म में समुद्र पारकर विदेशों में जाना वर्जित सा था। अगर मनुष्य में जिज्ञासा, जिजीविषा और अपनी शारीरिक-मानसिक शक्तियों के विस्तार की कामना नहीं होती तो एक समाज का दूसरे समाज के साथ न तो संवाद होता, न टकराव और न विलय। राज्यों की विस्तार कामना ने एक समाज को दूसरे समाज के साथ धीरे-धीरे घुलने-मिलने और एक-दूसरे के अनुभवों से सीखने का मार्ग प्रशस्त किया। व्यापार से समाजों की पारस्परिक निर्भरता बढ़ी। सभ्यता के विकास के साथ शहरीकरण बढ़ा।
अंतर्देशीय पर्यटन और आवागमन बढ़ा तो लोग एक-दूसरे के और निकट आए।
यहाँ बाजार आपको आकार्षित करता है-शॉपिग नहीं तो विंडो शॉपिग। जहाँ रोजी-रोटी के साथ ज्यादा सुख-सुविधाएँ, वहीं जीवन। और दिल्ली चूँकि सबको रोजी-रोटी का आश्वासन सा देती लगती है, इसलिए गाँवों और कस्बों के लोग यहाँ खिंचे चले आ रहे हैं
संचार और आवागमन के साधनों ने मनुष्यों के बीच खड़ी अदृश्य दीवारों को तोड़ डाला। आज वैश्वीकरण के युग में भले ही अलग-अलग देश और समाज हों, लेकिन यह भावना भी प्रबल हुई है कि मनुष्य जाति एक है। आपस में लड़ने वाले देश भी इस पृथ्वी को बचाने के लिए एक मंच पर तो आ ही जाते हैं, भले ही उनमें मतभेद रहते हों। तो एक स्तर पर यह भावना है कि मानव जाति एक है, तो दूसरे स्तर पर वह छोटे-छोटे समाजों में बँटी हुई है। और हर क्षण एक समाज का दूसरे समाज के साथ संपर्क हो रहा है, संवाद हो रहा है और संबंध बन रहा है।
जब भारत में कोई छात्र उत्तर भारत के किसी छोटे से कस्बे से उठकर चेन्नई या बेंगलुरू पढ़ने या नौकरी करने जाता है तो आज उसकी उत्तर भारतीयता अपनी अलग अस्मिता के बावजूद अस्वीकार्य नहीं होती। वह भारतीयता में रची-बसी होती है। लेकिन वह वहाँ के समाज का हिस्सा भी नहीं होता। एक के लिए 'भैया' तो दूसरे के लिए 'मदरासी' नामक वर्गीकरण बना रहता है। लेकिन देश एक बड़े स्तर पर इस वर्गीकरण को मिटाता भी है। देश में कहीं भी जाकर रहने और तरह के काम करने की स्वतंत्रता जो है। रोजगार और अपना भौतिक विकास करने के लिए कहीं भी जाकर रहने और बस जाने की सुविधा ने धीरे-धीरे अजनबीपन को तोड़ा है।
यह अजनबीपन वैश्विक स्तर पर भी कम हुआ है। अँगरेजी भाषा, एक से बाजार, एक सी शिक्षा और ज्यादा अवसरों ने इस स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन पैदा किया है। अब दुनिया में कहीं भी रहते हुए आप अपने रिश्तेदारों के संपर्क में रह सकते हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उनसे ऐसे बात कर सकते हैं, जैसे वे बिलकुल आपके सामने खड़े हों। बस आप उन्हें छू नहीं सकते। आप किसी भी देश में अपना गीत-संगीत सुन सकते हैं, अपनी फिल्में देख सकते हैं और यहाँ तक कि कुछ देशों में अपना टेलीविजन चैनल भी देख सकते हैं। सोचिए जब इब्ने बतूता, फाहियान, ह्वेनसांग जैसे लोगों ने लंबी विश्व यात्राएँ की तो उन्हें कितना अजनबीपन लगा होगा।
या जो मजदूर भारत से मॉरीशस, फिजी और सूरीनाम जैसे देशों में काम करने गए थे, उनके सामने कैसी दिक्कतें आई होंगी। एक जमाने में यह कहा जाता था कि किसी भी दार्शनिक के लिए अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जाकर बसना आसान नहीं होता। मध्ययुग में तो लेखक, कवि तक भी प्रायः अपना देश छोड़कर कहीं और नहीं बसते थे, लेकिन आज ऐसे अनेक निर्वासित साहित्यकार हैं जिन्होंने विदेश में रहते हुए कालजयी रचनाएँ दी हैं। मसलन निर्मल वर्मा ने चेकोस्लोवाकिया में रहते हुए अनेक कहानियाँ लिखी और उनका उपन्यास 'वे दिन' भी वहीं की पृष्ठभूमि पर है।
तो क्या यह कहें कि आधुनिक जीवन ने कहीं भी बसना आसान बना दिया है। दूसरे समाज में रहते हुए जरूर अजनबीपन भी होता होगा, लेकिन वह आपकी रचनाशीलता में भी अब बड़ी बाधा उपस्थित नहीं करता। आप अपने विश्वासों, संस्कारों के साथ कहीं भी रह सकते हैं और जल्दी ही उस जगह की आपको आदत पड़ जाती है। मेरे पिता सारी उम्र कस्बे में ही रहे, इसलिए उनका मन वहीं लगता है।
मैंने अपनी उम्र का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली में बिताया, अतः मैं दिल्ली में ही रह सकता हूँ और मेरा भतीजा दिल्ली या दिल्ली जैसे शहर में रहना चाहता है तो इसलिए नहीं कि यहाँ लाल किला, कुतुबमीनार, राष्ट्रपति भवन या कनॉट प्लेस है, बल्कि इसलिए कि यहाँ बड़े-बड़े विश्वविद्यालय, स्कूल, मॉल, मल्टीप्लैक्स, मेट्रो और चमकते बाजार हैं तथा अपना विकास करने और बेहतर नौकरी पाकर बेहतर जीवन के अवसर हैं। क्या किया जाए आज का दौर उपभोक्तावाद का जो दौर है। यहाँ बाजार आपको आकार्षित करता है-शॉपिग नहीं तो विंडो शॉपिग। जहाँ रोजी-रोटी के साथ ज्यादा सुख-सुविधाएँ, वहीं जीवन। और दिल्ली चूँकि सबको रोजी-रोटी का आश्वासन सा देती लगती है, इसलिए गाँवों और कस्बों के लोग यहाँ खिंचे चले आ रहे हैं।