गृह मंत्रालय अधिकारियों का कहना है कि विधेयक खासतौर पर मुस्लिमों की मांग से जुड़ा है। सांप्रदायिक हिंसा (निरोधक, नियंत्रण व पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, केंद्र व राज्य सरकारों और उनके अधिकारियों को सांप्रदायिक हिंसा को निष्पक्षता के साथ रोकने के लिए जिम्मेदार बनाने का दावा करता है। इस विधेयक में केंद्र द्वारा राष्ट्रीय सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय व क्षतिपूर्ति प्राधिकरण का गठन भी प्रस्तावित है। गृह मंत्रालय और विधि मंत्रालय के अधिकारियों ने भी मसौदे के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति जताई है।
भाजपा प्रस्तावित कानून पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कह चुकी है कि यह खतरनाक और बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ है। यही नहीं विधेयक संविधान के संघीय ढांचे को भी क्षति पहुंचाने वाला है। भाजपा ने सवाल उठाया था, 'विधेयक में यह पहले ही कैसे माना जा सकता है कि हर दंगे के लिए बहुसंख्यक ही जिम्मेदार हैं।'
विधेयक में केंद्र को एकतरफा फैसला करते हुए हिंसा वाले इलाके में अर्धसैनिक बलों को तैनात करने का अधिकार देने का कई राज्यों ने विरोध किया था। इसमें हिंसा वाले राज्य के मुकदमे दूसरे राज्य में स्थानांतरित करने और गवाहों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने का भी प्रस्ताव है। माना जा रहा है कि तृणमूल कांग्रेस, सपा, बीजद, अन्नाद्रमुक और अकाली दल विधेयक का विरोध करेंगे। हालांकि, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान खान कह चुके हैं कि इस तरह के कानून से मुजफ्फरनगर दंगों की जवाबदेही तय होने के साथ ही पीड़ितों के पुनर्वास में मदद मिलेगी।
क्या है इस बिल में : बिल का मकसद केंद्र व राज्य सरकारों और उनके अधिकारियों को सांप्रदायिक हिंसा को निष्पक्षता के साथ रोकने के लिए जिम्मेदार बनाना है। बिल में केंद्र द्वारा राष्ट्रीय सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति प्राधिकरण का गठन भी प्रस्तावित है। इसमें हिंसा वाले राज्य के मुकदमे दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने और गवाहों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने का भी प्रस्ताव है।
नौकरशाहों को भी ऐतराज : गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने विधेयक के मसौदे में कुछ क्लॉज पर आपत्ति दर्ज कराई है। इनमें सांप्रदायिक हिंसा फैलने पर नौकरशाहों की जिम्मेदारी शामिल है। अधिकारियों का कहना है कि सामान्य ड्यूटी निभाने में ये बाधा पैदा करेगा। विधेयक का प्रपोजल व्यापक तौर पर सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011 के प्रावधानों पर केन्द्रित है, जिसे सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया था।
विधेयक के प्रस्ताव के मुताबिक, धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को निशाना बनाकर की गई हिंसा को रोकने और कंट्रोल करने के लिए निष्पक्ष और भेदभावरहित ढंग से अधिकारों का इस्तेमाल करना केंद्र, राज्य सरकारों और उनके अधिकारियों की ड्यूटी का अनिवार्य हिस्सा होगा।
प्रस्तावित विधेयक के विरोध में कहा जा रहा है कि इसके तहत हिंदू और मुस्लिम दंगापीड़ितों के लिए अलग-अलग अदालतें बनाने की बात कही गई है ताकि हिंदू और मुस्लिम आरोपियों पर अलग- अलग मुकदमा चलाया जा सके। विधेयक के विरोधियों का कहना है कि यह साम्प्रदायिक दुर्भावना और ध्रुवीकरण को वैधता प्रदान करता है। दंगों की जांच करने वाले न्यायिक आयोग भी मानते हैं कि अगर सरकार और पुलिस बलों में इच्छा शक्ति हो तो किसी भी दंगे को 24 घंटों के अंदर रोका जा सकता है या फिर इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन दंगों को होने दिया जाता है क्योंकि कभी-कभी राजनीतिज्ञ और पुलिसकर्मी भी दंगों को भड़काते हैं। इतना ही नहीं, वे दंगों में भी शामिल होते हैं, लेकिन इन्हें कोई दंड नहीं दिया जाता है।
इस विधेयक में इन बातों को रोकने के लिए इसे 'कर्तव्य की उपेक्षा' और 'साम्प्रदायिक जिम्मेदारी संबंधी कर्तव्य भंग' अपराध बनाने की बात कही गई है। यह प्रावधान लोकसेवकों पर लागू होगा। इन पर सांप्रदायिक हिंसा की रोकथाम और अपने अधीनस्थों को नियंत्रित करने से रोकने में असफल होने का भी दोष लगाया जा सकता है। कर्तव्य की उपेक्षा के प्रावधान बहुत व्यापक बनाए गए हैं और इसके तहत दोषियों को दो वर्ष से लेकर पांच साल की सजा तक का प्रावधान किया गया है। लेकिन यह अपर्याप्त दंड है क्योंकि जो लोग नागरिकों के जीवन पर सत्ता का अधिकार रखते हैं उन्हें अपनी सत्ता का उपयोग न करने के लिए अधिक कड़े दंडों की जरूरत है पर इस विधेयक में पर्याप्त और समुचित प्रावधानों का प्रस्ताव नहीं है।