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अरविंद केजरीवाल की राजनीति में अब शायद ही कभी फूल खिलेंगे

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नवीन रांगियाल

arvind kejariwal : फरवरी में पतझड़ की आमद के साथ ही दिल्‍ली में अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक पारी के भी पत्‍ते झर गए हैं। वैसे तो हर साल सावन आता है और बसंत भी आता है, जिसमें फूल खिलते हैं, लेकिन केजरीवाल की राजनीति में अब शायद ही कभी फूल खिल सकेंगे।

दिल्‍ली के प्रगति मैदान से एक आंदोलन के कांधे पर सवार होकर राजधानी की सत्‍ता पर काबिज होने वाले केजरीवाल ने न सिर्फ अन्‍ना हजारे का भरोसा को तोड़ने से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी, बल्‍कि पिछले इतने साल से सत्‍ता में रहते हुए उन लाखों करोड़ों लोगों का भरोसा तोड़ने का भी काम किया, जो उनके आम आदमी होने के भ्रम में उनसे जुड़ गए और उनके पीछे पीछे हो लिए। इस दौर की राजनीति भले कितनी ही अशिष्‍ट और व्‍याभिचारिणी हो चुकी हो, बावजूद इसके उसका चरित्र तब तक बेदाग बना रहेगा, जब तक उस पर कोई दाग न लगा दे।
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अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक चरित्र पर इतने साल में कई दाग लगे। चाहे दिल्‍ली की शराब नीति का ‘मदिरा कांड’ हो या दिल्‍ली में उनका करोड़ों का ‘शीलमहल कांड’ हो। पार्टी का नाम ‘आम आदमी’ रखकर केजरीवाल ने भले ही 12 साल सत्‍ता का सुख भोग लिया हो, किंतु इस भोग ने आम आदमी के तौर पर रची गई उनकी आम होने की अवधारणा को पूरी तरह से ध्‍वस्‍त कर दिया। आम आदमी का एक शीर्ष नेता जब ‘शीशमहल’ में रहने लगे तो जनता एक न एक दिन अपने हाथ में कुदाल और खूरपी लेकर उस महल तक पहुंच ही जाती है। फिर झाडू कितनी ही अच्‍छी क्‍यों न हो वो सबसे पहले हमारे अपने ही घर की सफाई करती है।

केजरीवाल के गुरु अन्ना हजारे ने कहा, ‘मैं लंबे समय से कहता रहा हूं कि चुनाव लड़ते समय उम्मीदवार के पास चरित्र होना चाहिए, अच्छे विचार होने चाहिए और छवि पर कोई दाग नहीं होना चाहिए। लेकिन, उन्हें यह बात समझ में नहीं आई। वे शराब और पैसे में उलझ गए। इससे अरविंद केजरीवाल की छवि खराब हुई।

किसी ने कहा है कि लोगों को लंबे वक्‍त तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता, केजरीवाल बार बार जिस चरित्र की बात करते रहे, वे उसी चरित्र का शिकार बन गए। शराब कांड ने उनके चरित्र को जनता के सामने उजागर कर दिया।

किसी भी देश का भविष्‍य उस देश की जनता करती है। इसलिए सत्‍ताओं को खुद को देश का भविष्‍य निर्माता नहीं समझना चाहिए। क्‍योंकि जनता को चाहे मुफ्त इलाज दे दो, बस का सफर मुफ्त कर दो, वो सबसे पहले नेता का चरित्र देखती है। अटल जी ने कभी कहा था की राजनीति काजल की कोठरी है, इससे बचना बेहद मुश्किल काम है, जो इससे बच सकता है वो बेदाग होने का लुत्‍फ भी उठाएगा।
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याद कीजिए, अरविंद केजरीवाल ने खुद को ‘दिल्‍ली का मालिक’ कहा था। अपनी इसी मालिकाना हक की वजह से उनके साथी एक एक कर उनका साथ छोड़कर चले गए। इनमें योगेंद्र यादव, आशुतोष और कवि कुमार विश्‍वास भी शामिल हैं।

राजनीति भी हालांकि मौसम की तरह है। कभी सर्दी-गर्मियां और सावन आते हैं— कभी पतझड़ का दौर भी आता है। लेकिन अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक मौसम में फिर से बहार आएगी, फूल खिलेंगे और दिल्‍ली में उनकी वापसी होगी, यह अब इतना आसान नजर नहीं आता।

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