भगवान बुद्ध का सद्धर्म और विपश्यना

- सत्यनारायण गोयनका

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भारत में भगवान बुद्ध का सद्धर्म क्यों और कैसे लुप्त हुआ, इसे समझने के लिए दो हजार वर्ष पूर्व के इतिहास का निरीक्षण करना होगा। उस समय तक भिक्षुओं में सेक्ख भी थे और असेक्ख भी। सेक्ख माने वह जो अभी सीख रहा है। असेक्ख माने वह जो अरहंत हो गया यानी जिसे सीखने के लिए अब कुछ शेष नहीं रहा। मुक्त हो गया। सभी बंधनों से छूट गया। जो कुछ करणीय था उसे पूरा कर लिया। कृतकृत्य हो गया।

इसका मतलब तब तक स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी भी थे और अरहंत भी। परंतु इसके बाद कुछ विरोधी तत्वों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से सद्धर्म को नष्ट करने का बीड़ा उठाया। अनेक भिक्षु मृत हुए। जो बचे वे भारत छोड़कर भाग गए। अधिकांश बुद्धविहार नष्ट हो गए। जो बचे वे सद्धर्म की शुद्धता को कायम नहीं रख पाए। इसी कारण भारत में चौथा संगायन नहीं हो पाया, क्योंकि संगायन के लायक प्रबुद्ध भिक्षु ही नहीं रह गए थे।

कुछ समय पश्चात दुर्भाग्य से खजुराहो-संस्कृति और देवदासी-प्रथा ने जोर पकड़ा जिससे अनेक मंदिर भ्रष्ट हुए। सर्वत्र कामाचार ही कामाचार फैल गया। बचे हुए बुद्धविहार भी इस दूषण से नहीं बच सके। वे दुराचार के अड्डे बन गए। इसका दुष्प्रभाव दूर-दूर तक फैला। यह दूषण बिहार, बंगाल, असम, मणिपुर होता हुआ उत्तर म्यंमा में प्रवेश कर गया। वहाँ से दक्षिण की ओर बढ़ते-बढ़ते म्यंमा की राजधानी 'पगान' तक जा पहुँचा और वहाँ के बुद्ध विहारों को काम संबंधी भ्रष्टाचार का केंद्र बना दिया।

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सद्धर्म का विकास : सम्राट अशोक के संरक्षण और अरहंत भदंत मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में भारत में जो तीसरा संगायन हुआ, उसके पश्चात सम्राट अशोक ने मोग्गलिपुत्त तिस्म के निर्देशन में नौ देशों में धर्मदूत भेजे, जो अपने साथ शुद्ध धर्मवाणी और विपश्यना विद्या लेकर गए।

सौभाग्य से दक्षिण म्यंमा (स्वर्ण भूमि) में अरहंत सोण और उत्तर के साथ जो बुद्धवाणी और विपश्यना भेजी गई, उसे वहाँ के धर्मप्रेमी भिक्षुओं और साधकों ने अपने शुद्ध रूप में संभालकर रखा। वाणी की शुद्धता कायम रखने के लिए सारा तिपिटक कंठस्थ करने की परंपरा कायम रखी गई। कुछ भिक्षु तिपिटकधर थे, माने तीनों पिटक उन्हें कंठस्थ थे या फिर कम-से-कम एक पिटकधर यानी सुत्तधर, विनयधर या अभिधम्मधर में से कोई एक थे। दूसरी ओर पटिपत्ति यानी विपश्यना विद्या को भी उसके शुद्ध रूप में कायम रखा गया। वहाँ सेक्ख और असेक्ख की परंपरा भी जीवित रही।

जहाँ तक पटिपत्ति यानी विपश्यना विद्या का प्रश्न है, यह भी पगान से उत्तर की ओर शुद्ध रूप में फैली, परंतु आगे जाकर कुछ लोगों ने इसमें मिण कर दिया। फिर भी इसकी एक क्षीण धारा गुरु-शिष्य परंपरा से बिलकुल शुद्ध रूप में कायम रही। भगवान बुद्ध के समय गृहस्थ उपासक-उपासिकाएँ भी विपश्यना के आचार्य-आचार्य हुआ करते थे।

उन्होंने देखा कि भिक्षु-भिक्षुणियों के अतिरिक्त गृहस्थ, उपासक-उपासिकाओं को भी विपश्यना साधना में प्रशिक्षित करना होगा। अतः यह विद्या गृहस्थों तक जानी चाहिए। तब उन्होंने गृहस्थों के लिए विपश्यना का द्वार खोल दिया। परिणामस्वरूप उन्होंने सयातैजी जैसे एक उत्कृष्ट किसान को विपश्यना का प्रथम गृहस्थ आचार्य नियुक्त किया। इसके बाद विश्वविश्रुत सयाजी ऊ बा खिन दूसरे गृहस्थ आचार्य हुए जिनके कारण ही विपश्यना और बुद्धवाणी अपने शुद्ध रूप में भारत तथा विश्व को प्राप्त हुई।

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अस्सी से अधिक देशों में : विपश्यना सांप्रदायिक न होकर सार्वजनीन होने के कारण इसमें सभी संप्रदायों के लोग सम्मिलित होते हैं। उनके आचार्य भी सम्मिलित होते हैं। इस विद्या का किसी ने विरोध नहीं किया। भगवान की विपश्यना विद्या सर्वत्र सर्वमान्य हुई है। पिछले 40 वर्षों में 80 से अधिक देशों में लोगों के कल्याण में सहायक हुई है। एक हजार से अधिक सहायक आचार्य 150 से अधिक निवासीय स्थायी केंद्रों के अतिरिक्त, अनेक अस्थायी केंद्रों पर भी शिविर लगाते रहते हैं। लगभग 1,200 बाल शिविर शिक्षक स्थान-स्थान पर बच्चों के शिविर लगाते रहते हैं।

प्रवचनों और निर्देशों के कैसेट या सीडीज विभिन्न भाषाओं में अनूदित होकर दुनिया की लगभग साठ भाषाओं में उपलब्ध कराई गई हैं जिनके माध्यम से विपश्यना के शिविर लगाए जाते हैं। गुरुदेव ऊ बा खिन ने कहा कि जहाँ-जहाँ विपश्यना सिखाई जाए, उसके साथ अन्य कोई प्रैक्टिस नहीं जुड़ने पाए। उसका उन्होंने कारण दिया कि यदि अन्य कोई प्रैक्टिस जुड़ेगी तो वह प्रमुख हो जाएगी और विपश्यना गौण।विपश्यना सिखाने वालों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वे इसे सुरक्षित रखें और इसमें किसी भी प्रकार का कोई मिण न होने दें, चाहे वह स्वतंत्र रूप से कितना ही अच्छा और कल्याणकारी क्यों न लगे।

विश्वास है कि वे सतर्क रहेंगे। अपनी जिम्मेदारी को सजगतापूर्वक निभाएँगे और अधिक से अधिक लोगों की मानसिक विकार विमुक्ति के मंगल में सहायक होंगे। ऐसा करेंगे तो सबका मंगल ही होगा। सबके मंगल में अपना भी मंगल समाया हुआ है। सबका कल्याण हो! सबकी स्वस्ति-मुक्ति हो!

चाहे योग हो या अन्य शारीरिक क्रियाएँ, वे सब अपनी जगह बहुत अच्छी हैं। इनसे हमारा कोई विरोध नहीं है, परंतु ये सब स्वतंत्र रूप से सिखाई जाएँ। ये भूलकर भी विपश्यना शिविर से न जुड़ें। विपश्यना मानसिक विकारों का जड़ों से उन्मूलन करके साधक के बिगड़े स्वभाव को सुधारने का काम करती है। इस कारण मन से संबंधित कोई शारीरिक रोग हो तो वह अपने आप दूर हो जाता है, परंतु विपश्यना शारीरिक रोग दूर करने के लिए नहीं है। यह स्पष्ट रूप से समझते रहना चाहिए।

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