साधकों के विपश्यना के अनुभव

- एक साधक

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यदि लोग हमारे साथ बुरा व्यवहार करें तो हम भी उनके साथ वैसा ही बुरा व्यवहार करें, यह ठीक नहीं है। हमारे व्यवहार में सदैव अच्छाई व सौजन्य ही बना रहे तथा उनके प्रति गलतफहमी न हो, यही कटुता-निवारण एवं स्नेह-संबंध बनाए रखने का उत्तम मार्ग है।

सुख और दुःख तो जीवन में नित्य आते रहते हैं और वांछित-अवांछित घटनाएँ भी नित्य घटित होती रहती हैं। इन द्वंद्वों की कोई प्रतिक्रिया चित्त पर होने न पाए, अलिप्तता व तटस्थता बनी रहे, संतुलन बनाए रखें। यही शांति एवं सुख-प्राप्ति का एकमेव मार्ग है और यही अध्यात्म की नींव है। इसका स्मरण बना रहे।

धर्म एवं अध्यात्मका आविष्कार अंतिम सत्य की खोज के लिए ही हुआ है। इसलिए सत्यान्वेषण मार्ग का अवलंब करते समय केवल सत्य का आधार लिया जाए। सत्य के सहारे-सहारे ही जीवनपथ पर चला जाए यह अत्यावश्यक है। इस कार्य में किसी कल्पना को प्रश्रय देना सत्य से विमुख होना ही नहीं, स्वयं को किसी भ्रम में उलझाए रखना है। इस महत्वपूर्ण बात का कभी विस्मरण न हो।

सत्य की खोज के लिए किसी साधना-प्रणाली का अवलंबन आवश्यक है। मेरी समझ तथा मेरे कुछ अनुभवों के आधार पर विपश्यना-साधना एक उच्च साधना-प्रणाली है, ऐसी मेरी मान्यता है और इसका वैज्ञानिक ठोस आधार भी है।

इस साधना के अनुसरण से स्वभाव में, व्यवहार में एवं आचरण में अनुकूल बदलाव आने में सहायता मिलती है और इस प्रकार सुखी एवं शांत जीवन जीने की कला हस्तगत हो जाती है। परम पूज्य आचार्य सत्यनारायण गोयन्काजी का मूल्यवान एवं उपकारक मार्गदर्शन मेरे जीवन के उत्तरार्ध में ही मुझे क्यों न मिला हो, फिर भी उनके दिखाए गए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का मैं मेरी क्षमतानुसार अनुसरण कर सका तथा कृतार्थ जीवन जी सका, इसके लिए मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। उनका मैं अत्यंत ऋणी हूँ।

इससे उऋण होना या उतराई होना असंभव है। केवल शब्दों द्वारा कृतज्ञता व्यक्त करना, यही एक मार्ग शेष रह जाता है। इससे अधिक कुछ कर पाना मेरे लिए संभव नहीं।

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