ध्यान : आनंदपूर्ण जीने की कला

- डॉ. दिनेश शर्मा

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श्वास जितनी गहरी, धीमी तथा नियमित होगी मन उतना ही शांत तथा आनंदपूर्ण होगा। इसके लिए यदि आप नियमित रूप स ेᅠ प्रयोग करेंगे तो प ाए ँगे कि आपका मन धीर े- धीरे अपनीᅠस्वाभाविक शांत तथा आनंदपूर्ण स्थिति की ओर अग्रसर हो रहा है।

हिमालय की प्राचीन परंपरा के महान ऋषियों ने मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए एक सरल तथा सहज ध्यान योग की परंपरा का सूत्रपात किया। परंपरा में वर्णित उन्हीं सहज तथा सरल क्रियाओं के अभ्यास से हम एक आनंदपूर्ण जीवन जीने की शुरुआत कर सकते है। जीवन के तनाव तथा विषम परिस्थितियाँ आसानी से हल नहीं होते बल्कि दिनोदिन विकट ही हो रहे हैं। उन सब पर हमारी त्वरित मानसिक प्रतिक्रियाएँ यथा चिंता, क्रोध, हताशा, निराशा ही हमारी मानसिक, शारीरिक तथा भावनात्मक बीमारियों की जड़ है।

हमें स्वयं को बदलना होगा- इसके अलावा कोई समाधान नहीं है क्योंकि परिस्थितियों को बदलना सामान्यतः संभव नहीं होता। हिमालय की ध्यान योग की सरल प्रक्रियाओं को सीख कर, उन्हें आत्मसात करके हम अपने सोच में आधारभूत बदलाव ला सकते हैं।

मन की स्वाभाविक प्रक्रिया पाँच ज्ञानेन्द्रियों यथा नेत्र, नासिका, कान, जिव्हा तथा स्पर्श के द्वारा प्राप्त सूचनाओं पर प्रतिक्रिया करना है। जैसी सूचनाएँ, जिस अच्छे-बुरे रूप में मन इंद्रियों के द्वारा ग्रहण करेगा, वैसी ही प्रतिक्रिया एक सामान्य मन देगा। कोई गाली देता है तो स्वाभाविक रूप से मन हमें भी वापस गाली देने की प्रतिक्रिया करता है।

यह एक अप्रशिक्षित मन की प्रक्रिया है। जब हम हिमालय की ध्यान योग की परंपरा द्वारा मन को साधने का प्रशिक्षण देते है, तो हमारे भीतर धीरे धीरे एक क्रांतिकारी परिवर्तन होने लगता है। आज के व्यस्त तथा सामाजिक उपालाम्भों से लदे फंदे जीवन में यम, नियम, धारणा तथा प्रत्याहार के लिए न तो किसी के पास समय है और न ही सहज स्वीकार्य भाव। पर इसमें कोई शक नहीं कि फिर भी सबको जीवन में बदलाव की चाह अवश्य है।

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सबसे पहले हिमालय की ऋषि परंपरा ने जीवन के जिस महत्वपूर्ण सूत्र को खोजा वह है श्वास तथा मन का संबंध। प्राण वायु जो कि जीवन का आधार है और जिसे हम श्वास के रूप में जानते है वह मन की स्थिति से प्रभावित भी होती है तथा उसे प्रभावित भी करती है। आप यदि ध्यान देंगे तो पाएँगे कि मन की असहज-अशांत स्थितियों यथा क्रोध, चिंता, ईर्ष्या, अवसाद इत्यादि में श्वास की गति तथा तारतम्यता दोनों ही प्रभावित होती हैं। श्वास जो कि सहज रूप में नियमित, गहरा तथा धीमा होता है, ऐसी स्थितियों में अनियमित, सतही तथा तीव्र हो जाता है।

हिमालय की ध्यान योग की परंपरा वस्तुतः श्वास को साधने की ही प्रक्रिया है। श्वास जितना गहरा, धीमा तथा नियमित होगा मन उतना ही शांत तथा आनंदपूर्ण होगा। इसके लिए यदि आप नियमित रूप से निम्न प्रयोग करेंगे तो पायेंगे कि आपका मन धीरे-धीरे अपनी स्वाभाविक शांत तथा आनंदपूर्ण स्थिति की ओर अग्रसर हो रहा है।

घर या ऑफिस के किसी शांत कोने में कुर्सी, बेंच या जमीन पर बैठ जाएँ। फोन इत्यादि बंद कर दें। गर्दन तथा रीढ़ को सीधा रखें। आँखे हल्के से बंद कर लें। हाथों को घुटनों पर शिथिल रूप में विश्राम करने दें। पेशानी को शिथिल करें। पेशानी को अच्छी तरह और शिथिल करें।

पलकों, आँखों, चेहरे की माँसपेशियों को शिथिल करें। मुँह के कोनो, जीभ तथा तालू को शिथिल करें। कंधों, भुजाओं, हाथों को शिथिल करें। अपने ध्यान को अब श्वास पर लाएँ। श्वास को अपने नथुनों में अनुभव करें। बस देखें कि किस तरह श्वास बाहर और भीतर आ जा रही है। श्वास को रोकने या नियंत्रित करने का प्रयास न करें। धीरे-धीरे श्वास को गहरा करें तथा श्वास की गति का अनुभव बजाय फेफड़ों के पेट में करें। श्वास को कहीं रोकें बिलकुल नहीं। बस एक धारा की तरह श्वास बहती रहे। श्वास बिना रुके, धीरे-धीरे एक नियमित लय में गहरी होती रहे।

जब श्वास की नियमितता, गहरेपन तथा धीमेपन का अनुभव होने लगे तब आती-जाती श्वास के साथ अपने प्रभु, या ईष्ट या मंत्र का ध्यान इसमें जोड़ दें। अन्यथा बाहर जाती श्वास के साथ अंक 'एक' और अंदर आती श्वास के साथ अंक 'दो' का ध्यान करें। जितना भी समय मिले या संभव हो, श्वास और प्रभु नाम या 'अंक' ध्यान की इस स्थिति में रहें। दिन में कम से कम दो बार बीस-बीस मिनट इस प्रक्रिया को अवश्य दोहराएँ। और भी समय मिले तो बहुत ही अच्छा।

यदि आप नियमित रूप से रोज इस प्रक्रिया को अपने जीवन में सम्मिलित कर लेंगे तो मात्र बीस दिनों में ही आप घर बैठे ही अपने व्यक्तित्व में एक सकारात्मक परिवर्तन का अनुभव करेंगे।

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