प्राण शक्ति से आरोग्य

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- तन्मय वेद 'तन्मय'
मनुष्य का शरीर अनंत शक्तियों का केंद्र है। इनके बारे में समय-समय पर शोध के माध्यम से वैज्ञानिकों ने नए तथ्यों का पता लगाया और हर बार आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त हुए।

मनुष्य में प्राणमयी शक्तियों को योग द्वारा, ध्यान द्वारा तथा सतत साधना से अति तीव्रता के साथ साध कर परिणाम प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की जा चुकी है। यह शक्ति शरीर की प्रत्येक नाड़ी में पाए जाने वाले द्रवों में सूक्ष्म रूप से रहती है। मनुष्य का मस्तिष्क और मेरू दंड इसका प्रमुख भंडार है।

तंत्र एवं मंत्र योग में इसी शक्ति को जागृत कर सिद्ध करने के प्रयोगों का वर्णन भी हमारे चिकित्सा शास्त्रों में वर्णित है। इन शास्त्रों के अनुसार उक्त शक्तियों का भंडार मस्तिष्क की संधि के ऊपर ब्रह्मरंध्र और मानव हृदय में भी है, जिसका प्रवाह श्वास प्रक्रिया में बाएँ-दाएँ नथुनों से निरंतर होता रहता है। इसे योग की भाषा में चंद्र, सूर्य स्वर भी कहा जाता है।

मनुष्य का खान-पान, अन्य प्राणियों से उसका संबंध, पदार्थों से उसका संपर्क और विचारों, व्यवहारों, आदतों, मननशीलता इस सबसे उसके प्राणों का स्वरूप प्रभावित होता है। यहाँ सभी चेतन के साथ जड़ पदार्थों से भी प्राण छाया निकलती है, जिसके संपर्क में जो भी आता है, उससे अप्रभावी नहीं रह सकता। मनुष्य की ये प्राण शक्ति स्वयं की इच्छा शक्ति के अधीन है, वह स्वयं अपने लिए अथवा दूसरे को स्वस्थ करने के लिए इस शक्ति को भेज सकता है।

मुख्यतः मानव शरीर में विकारों की उत्पत्ति प्राण शक्ति के सम्यक संचरण में बाधा आने से ही होती है। इसे उपचारित करने वाला मानस चिकित्सक भी कहा जाता है, जो स्वयं की उन्नात प्राण शक्ति का प्रवाह करने में इतना समर्थ होता है कि स्वयं अपने उपचार के साथ अन्य व्यक्ति को भी इस शक्ति से स्वस्थ कर सकता है। साथ ही रोगी की प्राण शक्ति को भी स्वयं उपचार के लिए प्रयोग करने में सक्षम कर देता है।

मनुष्य के रुग्ण अवयव से उत्पन्न बीमारी को प्राण शक्ति के केंद्रीयकरण से दूर किया जाता है, परंतु इसके लिए आवश्यक है कि उपचार करने वाला स्वयं स्वच्छ हृदय और उच्चचरित्र बल का धारी होना चाहिए, क्योंकि वह सिर्फ अपनी प्राण शक्ति ही नहीं, अपने अन्य तत्व भी रोगी को देता है। हमारे मन में अद्भुत शक्ति होती है। इस शक्ति का ज्ञान-तंतुओं, माँस पेशियों व नसों पर आश्चर्यजनक प्रभाव होता है।

मन जितना कार्यशील होगा, उसकी विचार शक्ति भी उतनी ही बड़ी होती है- मनुष्य भी विचार शक्ति की तुलना यदि विद्युत अथवा प्रकाश की गति से करें तो इसका वेग तीव्र होता है। इस संबंध में शोधकर्ता विज्ञान के प्रो. एलिशा ग्रे ने अपनी पुस्तक 'मिरेकल्स ऑफ नेचर' में लिखा है कि प्रकाश तरंगों की गति से विचार शक्ति की गति काफी तीव्र यानी अरबों मिल प्रति सेकंड तेज होती है।

विचार शक्ति पर वातावरण का भी प्रभाव होता है, यानी दिन में सूर्य किरणों से विचारों में अवरोध आ जाता है, परंतु रात्रि में यानी चंद्र किरणों में विचार-शक्ति का वेग तीव्रतम हो जाता है।

दरअसल विचार का सीधा संबंध फेफड़ों से है, क्योंकि रक्त संचार हमारे विचारों के अधिकार में होता है। यदि रक्त संचार संतुलित होगा तो हमारा नाड़ी तंत्र एवं मस्तिष्क भी ठीक होगा, यानी अनुचित विचार भी अपने जीवन में रोगों का कारण हैं।

इसलिए आवश्यक है कि आप मानसिक शक्तियों को जागृत कर मन की गुप्त शक्ति को प्रबल बनाएँ, ताकि विकारों को अवरोधित करने के लिए रक्त संचार को संतुलित तथा पर्याप्त प्रभारी बनाया जा सके।

इसके लिए निम्न विधि से शरीर को सरल रूप में तैयार किया जा सकता है। किसी एकांत एवं स्वच्छ हवादार स्थान में चित्त लेटकर शरीर को शिथिल कर लें- अपना मुँह बंद रखें। फिर नासिका से धीरे-धीरे आसानी से गहरी साँसे लीजिए।

अपने हाथों की उँगुलियों को अपने कपाल के मध्य इस प्रकार रखें कि दोनों हाथों की उँगुलियों का आपस में स्पर्श होता रहे और दोनों अँगूठों से आप कनपटियों को दबाते रहे। अब आज्ञा चक्र याने मस्तिष्क में मध्य बिंदु पर विचारों औरं चित्तवृत्तियों को एकाग्र कर संपूर्ण शरीर में विद्युत प्रवाह की अद्भुतअनुभूति करें।

साथ ही अंतर्मन में ऊँकार नाद का स्मरण करें, फिर हाथों से स्पर्श करते हुए माथे के नीचे नेत्र का स्पर्श करते हुए दोनों अँगूठों को गर्दन की दोनों बगलों से कंठ की हड्डी पर उँगलियों को मिलाकर स्पर्श करें, बाद में हाथों को कंधों पर से शरीर की दोनों बगलों पर अँगूठे से दबाते हुए अपनी नाभी याने मणिपुर चक्र में स्पर्श करते हुए अपने विचार प्रवाह को शक्ति रूप में अवधारित करें।

पीड़ित अंगों पर कुछ समय रुक कर उन अंगों पर शक्ति प्रवाह का संचार अनुभव करें। इस सर्वांग स्पर्श में तीन मिनट का समय लगना चाहिए। रातको शयन के समय यह अभ्यास करने से शांत, स्वस्थ एवं प्रचुर मात्रा में नींद आती है।

जिस समय अपने हाथ को किसी अंग पर रोकें तो श्वास भी रोक दें तथा अपने मन में संकल्प करें कि मैं अपने रक्त संचार को नियमित कर रहा हूँ। कण-कण में नवीन रक्त निर्माण हो रहा है। समस्त शारीरिक क्षीणता, दुर्बलता, जीर्ण अवयव, अनावश्यक पदार्थ शरीर से पृथक होकर शरीर सुंदर, बलवान, सुपुष्ट हो रहा है।

इस प्रकार मनुष्य संकल्प बल के आधार पर आकर्षण शक्ति का संचय करके दूसरों में नई प्राण चेतना डाल सकता है। वह अपनी दृढ़ता के बल पर अंतर्मन से शक्ति प्राप्त करता है, क्योंकि प्राण चिकित्सा का रहस्य भी अंतर्मन ही है- जब हमारा अंतर्मन अनुकूल व्यवहार करता है तब सभी उद्देश्यों में सफलता मिलती है।

जब शरीर में दुर्बलता, भय, निरुत्साह, संशय, निराशा, निष्फलता का अहसास होता है तो स्वास्थ्य में खराबी आती है, वहीं, आशा, प्रसन्नाता, उत्साह, नव निर्माण, नव चेतना, प्रेम, सुख, सौंदर्य, बल, वीर्य का अनुभव कर शरीर स्वयं आरोग्यता से संचालित होकर निरोगी रहता है।

प्राण चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य भी यही है कि व्यक्ति स्वयं अपने शरीर के ज्ञान-तंतुओं को बलवान बनाकर अन्य रोगियों को भी स्वस्थ करे। विचारों का श्वास-प्रश्वास पर गहरा और सीधा प्रभाव होता है यानी प्रसन्नाता में श्वास हल्का तथा शोक में श्वास भारी हो जाता है और हमइसे अपनी आत्म सूचना द्वारा अनुभव कर इस पर अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
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