विपश्यना के जरिए मिटाया भ्रष्टाचार

सयाजी-उबा-खिन और उनकी विपश्यना

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कुछ वर्षों पहले की बात है... हमारे पड़ोसी देश म्यांमार के एक प्रधानमंत्री ने भी अपने समय देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर उससे लड़ने की ठानी...वह स्वयं बड़ा ईमानदार था और चाहता था कि उसका शासन भी ईमानदारी से ही चले। परंतु लाचार था। अनेकों प्रकार के प्रयत्न करके भी उसे सफलता नहीं मिली।

तब उसने उस समय सरकार के बड़े अधिकारी एवं विपश्यनाचार्य सयाजी-उबा-खिन को याद किया और उनसे कहा की वे अपने एजी ऑफिस का कार्यभार संभाले रखें तथा अन्य तीन विभागों में भी अपनी सेवा दें। सयाजी-उबा-खिन ने इसे स्वीकार किया। अपने ऑफिस का कार्य पूरा करके वे अन्य तीन विभागों में भी अपनी सेवा देने लगे। सत्यनिष्ठ व्यक्ति कर्मनिष्ठ भी हो जाता है।

उसकी कार्यक्षमता बढ़ती है। अतः वे तीनों कार्यालयों के कार्य भी समय पर पूरा करने लगे और वहां कर्मचारियों को भी विपश्यना की ओर प्रेरित करने लगे। सरकारी विभागों के अनुसार उन्हें अपने विभाग से पूरी तथा अन्य तीन विभागों से एक-एक चौथाई वेतन मिलना था। परंतु इस सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने इसे स्वीकार नहीं किया।

इस सत्यनिष्ठ व्यक्ति ने कहा- मैं नित्य आठ घंटे ही काम करता हूं। इस विभाग में करूं या उस विभाग में। अतः मैं अधिक वेतन क्यों लूं?

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उन दिनों म्यांमार देश में स्टेट एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड सरकार का सबसे बड़ा सरकारी संस्थान था, जिसे देशभर का सारा चावल खरीदने और बेचने की मोनोपोली प्राप्त थी। यह विभाग जिन कीमतों पर धान्य खरीदता था उससे चौगुनी कीमत पर विदेशी सरकारों को बेचता था।

अरबों के इस वार्षिक धंधे में करोड़ों का लाभ होने के बदले यह विभाग करोड़ों का घाटा दिखाता था। कार्यालय में धोखेबाजी स्पष्ट थी। इसे सुधारने के लिए प्रधानमंत्री ने सयाजी-उबा-खिन को सैम्ब का अध्यक्ष बनाने का निर्णय किया। परन्तु सत्यनिष्ठ सयाजी-उबा-खिन ने यह पद तभी स्वीकार किया जबकि उनके निर्णयों पर कोई हस्तक्षेप न करे और वे स्वतंत्र रूप से इस संस्थान का संचालन करते रहें।

प्रधानमंत्री ने उनकी यह शर्त स्वीकार कि परंतु इस निर्णय से सैम्ब के कार्यालय में तहलका मच गया। वहां के जो बड़े अधिकारी थे वे भ्रष्टाचार में सबसे आगे थे। इस निर्णय से वे घबरा उठे और उन्होंने सामूहिक रूप से हड़ताल करने की घोषणा कर दी। सयाजी -उबा-खिन निडर थे, निर्भय थे और सुदृढ़ कर्मनिष्ठ थे।

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उन्होंने हड़ताल को दृढ़तापूर्वक स्वीकार किया और अपने विभाग के छोटे कर्मचारियों के साथ सफलतापूर्वक काम करना शुरू किया। वे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। हड़तालियों ने तीन महीने तक प्रतीक्षा की। तदंतर उनका धैर्य टूट गया और उन्होंने सयाजी-उबा-खिन के पास जाकर क्षमा-याचना करते हुए पुनः काम पर लग जाने की इच्छा व्यक्त की। परंतु उबा-खिन नहीं माने।

उन्होंने कहा- तुममें से जो व्यक्ति विपश्यना का शिविर करके आएगा उसे ही काम पर लिया जाएगा। तब तक वहां समीप ही सयाजी-उबा-खिन का एक विपश्यना का केंद्र भी प्रारंभ हो चुका था। वहां विपश्यना करने पर धीरे-धीरे घूसखोर अधिकारियों का भी कल्याण होने लगा और देश का भी। जो सैम्ब का ऑफिस हर वर्ष करोड़ों का घाटा बताता था, वह अब करोड़ों का मुनाफा बताने लगा। हमारे मन के मैल जैसे लालच, भ्रष्ट तरीकों से पैसा कमाने या चोरी के लिए उकसाता है, अत्यधिक क्रोध एवं घृणा की परिणति मनुष्य को हत्यारा बनाने की क्षमता रखती है।

इसी तरह अनेकों मन के विकार जब-जब मनुष्य के मानस पर हावी होते हैं तो वह मनुष्यत्व भूलकर पशुतुल्य हो उठता है, यही बात सम्राट अशोक ने भी बड़ी गहराइयों से जान ली थी तभी वह अपने राज्य में वास्तविक सुख-शांति स्थापित करने में अत्यधिक सफल हुआ था। अपने एक प्रसिद्घ शिलालेख में वह लिखता है - 'मनुष्यों में जो धर्म की बढ़ोतरी हुई है वह दो प्रकार से हुई है। एक धर्म के नियमों से और दूसरी विपश्यना ध्यान करने से और इनमें धर्म के नियमों से कम और विपश्यना ध्यान करने से कहीं अधिक हुई है।

यही कारण है की मनुष्य समाज को सचमुच अपना कल्याण करना हो, वास्तविक अर्थों में अपना मंगल साधना हो तो उसे अपने मानस को सुधारने के प्रयत्न स्वयं ही करना होंगे। विपश्यना साधना के आज भी वैसे ही प्रभाव आते हैं जैसे 2600 वर्ष पूर्व के भारत में आते थे।

सबके मंगल और सबके कल्याण के लिए आज भी आचार्य सत्यनारायण गोयनका के सद्‍-प्रयत्नों से यह साधना उसी मौलिक रूप में आज हमें उपलब्ध है जैसी आज से 2600 वर्ष पूर्व उपलब्ध थी।

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