विपश्यना के प्रति जागी आस्था

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' मेरी माता एक अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति वाली भक्त और पिता सदा मौन रहने वाला अनासक्त। दोनों स्वभाव में एक-दूसरे के विपरीत। मैं भी जीवन के पंद्रह वर्ष तक शांत और एकांतप्रिय ही रहा। कई दिनों तक लगातार चलने वाले पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन और कर्मकांडों का माहौल, अनेक लोगों की भीड़-भाड़ घर के लिए यह एक स्वाभाविक घटना थी। लेकिन इन सबसे मैं जरा-भी प्रभावित नहीं होता था बल्कि इनसे अलग रहकर यही सोचता था कि ईश्वर भी महज एक कल्पना ही है।

किशोर अवस्था के इस महत्वपूर्ण समय में मेरे मन में जैसे कोई दबी हुई अशांति जाग पड़ी और उसके बाद भावी चौदह वर्षों तक अपने मन का गुलाम बना रहा। जीवन में एक-पर-एक तरंग उठती और मैं उसमें डूबकर अपने मुँह का स्वाद बिगाड़ लेता और फिर अगली तरंग के लिए तैयार हो जाता। पढ़ने-लिखने में बहुत तेज रहा, इसलिए हमेशा स्कॉलरशिप मिलती रही। आईआईटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की और मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन भी किया, लेकिन इससे कोई संतोष नहीं हुआ।

राजनीति के क्षेत्र में उतरा। सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त की, लेकिन अंततः जीवन निराशा में ही डूबता गया। प्रेम-प्रसंग और नशे-पत्ते ने भी जीवन में कोई प्रसन्नता नहीं दी, बल्कि दुःख ही बढ़ाया। एक-के-बाद-एक कंपनियों में ऊँचे पद पर काम किया, पर अशांत ही बना रहा। स्वयं अपना व्यापार किया और उसमें आकंठ डूबा रहा। बहुत सफलता भी मिली, लेकिन भीतर की निराशा और कुंठा नहीं गई।

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एक दिन पहाड़ों की यात्रा से घर लौटा तो एक विचित्र रोग ने घर दबोचा। मैं जमीन पर गिरा तो गिरा ही रह गया, उठ न पाया। यह एक अजीब रोग था और मैंने इसका अनुभव जीवन में पहली बार किया। अपने आपको इतना असहाय पाकर मानस वास्तविक भय से भर उठा।

मुझे अस्पताल में भर्ती किया गया। दस दिनों तक खटिया पर आराम के लिए रखा गया और तब मैं अस्पताल के बाहर निकल सका। उसके बाद मैं सीधे यात्रा पर चल पड़ा और श्री रमणाश्रम पहुँचा। वहाँ पहुँचकर मेरे चेतन चित्त को यह विश्वास हुआ कि जीवन यात्रा का अंतिम लक्ष्य क्या है? श्री रमण ने मुझे भीतर तक, गहराई तक हिला दिया। लेकिन इसके बावजूद मुझे कोई यह सिखाने वाला नहीं मिला कि उस लक्ष्य तक कैसे जाए?

मुझे किसी ने विपश्यना के बारे में कुछ नहीं कहा। भीतर से ही प्रेरणा जागी और मैं चल पड़ा और अकस्मात पहले शिविर में शामिल हो गया। पहले ही शिविर में मुझे अपने भीतर की गहराई की एक झाँकी प्राप्त हुई। मैंने जान लिया कि 'कैसे' का उत्तर यही है। मन अभी अशांत है, अहंभाव बहुत प्रबल है। मैं नहीं कह सकता कि मैंने इस विद्या के प्रति पूरी आस्था पैदा कर ली है। लेकिन मैंने यह निश्चय अवश्य कर लिया है कि आगामी दो वर्षों तक इसी साधना-विधि को पूर्णतया समर्पित होकर इसे आजमाकर देखूँगा।'

- एक साधक

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