सुखी जीवन के निर्माता स्वयं बनें

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शांति व चैन किसे नहीं चाहिए? जबकि सारे संसार में अशांति और बेचैनी छाई हुई नजर आती है। शांतिपूर्वक जीना आ जाए तो समझे जीने की कला हाथ आ गई। सच्चा धर्म सचमुच जीने की कला ही है। हम स्वयं भी सुख और शांतिपूर्वक जीएँ तथा औरों को भी सुख-शांति से जीने दें। शुद्ध धर्म यही सिखाता है, इसलिए सार्वजनीन, सार्वकालिक और सार्वभौमिक होता है। संप्रदाय को धर्म मानना प्रवंचना है।

पहले यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं? गहराई से सोचने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है, तब वह अशांत हो जाता है। चाहे क्रोध हो, लोभ हो, भय हो, ईर्ष्या हो या और कुछ। उस समय विक्षुब्ध होकर हम संतुलन खो बैठते हैं।

आखिर ये विकार क्यों आते हैं? अधिकांश किसी अप्रिय घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप आते हैं। तो क्या यह संभव है कि दुनिया में रहते हुए कोई अप्रिय घटना घटे ही नहीं? कोई प्रतिकूल परिस्थिति पैदा ही न हो? नहीं, यह किसी के लिए संभव नहीं। जीवन में प्रिय-अप्रिय दोनों प्रकार की परिस्थितियाँ आती रहती हैं। प्रयास यही करना है कि विषम परिस्थिति पैदा होने के बावजूद हम अपने मन को शांत व संतुलित रख सकें।

' विपश्यना' के अभ्यास में एक और सच्चाई सामने आती है कि जो बदल रहा है, वह अकस्मात, अकारण नहीं बदल रहा। उसके पीछे एक या अनेक कारण हैं। बिना कारण के कुछ होता ही नहीं। किसी कारण से ही कोई कार्य संपन्न होता है। जो अगले कार्य का कारण बन जाता है। यह कार्य- कारण, कारण-कार्य की श्रृंखला अनवरत गति से चलती है। ज्यों-ज्यों गहराइयों में उतरते जाएँगे, एक और सच्चाई स्पष्ट होने लगेगी। जैसा बीज, वैसा फल। यदि कड़वा नीम बोएँगे तो कड़वा फल ही आएगा। मीठा आम बोएँगे तो मीठा फल ही आएगा। यह प्रकृति का अटूट नियम है, इसके विपरीत हो ही नहीं सकता।

मन का कर्म ही फल देता है, शरीर और वाणी के कर्म तो मन के कर्म ही बा प्रक्षेपण है, बा प्रकटीकरण है। हर कर्म पहले मन में शुरू होता है। फिर बढ़ते-बढ़ते तीव्र होगा तो वाणी पर उतर आएगा और अधिक तीव्र होगा तो शरीर पर उतर आएगा। जो शरीर या वाणी का दुष्कर्म है, वह मन के दुष्कर्म की ही संतान है। इसी प्रकार जो शरीर या वाणी सत्कर्म है वह भी मन के सत्कर्म की ही संतान है। यह कुदरत का कानून किसी के उपदेश से नहीं मान लेना है।

ये सारी बातें अनुभूतियों में उतरेंगी तो कुदरत के कानून को ठीक से समझेंगे और तब अपने चित्त पर पहरा लगाएँगे। जो व्यक्ति अपने चित्त की चेतना पर पहरा लगाने लगा, उसको अपनी वाणी पर, शरीर पर पहरा लगाने की आवश्यकता नहीं। यदि चित्त की चेतना सुधरी हुई है तो वाणी से शरीर से जो कर्म होंगे, कल्याणकारी ही होंगे।

धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन।
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन।

- डॉ. एनएस वाधवानी, (लेखक कंसल्टिंग फिजीशियन हैं।)

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