प्रकाश का उत्सव-दीपोत्सव

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- पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले

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दीपोत्सव यानी आनंद का उत्सव, उल्लास का उत्सव, प्रसन्नता का उत्सव, प्रकाश का उत्सव! दीपोत्सव केवल एक उत्सव ही नहीं है, परन्तु उत्सवों का स्नेह सम्मेलन भी है। धनतेरस, नर क चतुर्दशी, दीपावली, नया साल और भैयादूज ये पाँच उत्सव पाँच विभिन्न सांस्कृतिक विचारधाराओं को लेकर इस उत्सव में सम्मिलित हुए हैं। सोच-समझकर यदि ये उत्सव मनाए जाएँ तो मानव को समग्र जीवन का सुस्पष्ट दर्शन प्राप्त हो सकता है।

धनतेरस : धनतेरस अर्थात्‌ लक्ष्मीपूजन का दिन। भारतीय संस्कृति ने लक्ष्मी को तुच्छ या त्याज्य मानने की गलती कभी नहीं की है, उसने लक्ष्मी को माँ मानकर उसे पूज्य माना है। वैदिक ऋषि ने तो लक्ष्मी को संबोधन करके श्रीसूक्त गाया है -

ॐ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्‌ ॥

' महालक्ष्मी को मैं जानता हूँ! (जिस) विष्णु पत्नी का ध्यान करता हूँ, वह लक्ष्मी हमारे मन, बुद्धि को प्रेरणा दे।'

' सुई के छेद से ऊँट निकल सकता है, लेकिन धनवान को स्वर्ग नहीं मिलेगा' इस ईसाई धर्म के विधान से भारतीय विचारधारा सहमत नहीं है। भारतीय दृष्टि से तो धनवान लोग भगवान के लाडले बेटे हैं, गत जन्म के योगभ्रष्ट जीवात्मा हैं। 'शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।'

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्‌।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्‌॥

' हे जातवेदस! मैं सुवर्ण गाय, घोड़े और इष्ट मित्र को प्राप्त कर सकूँ ऐसी अविनाशी लक्ष्मी मुझे तू दे।'

लक्ष्मी चंचल नहीं है अपितु लक्ष्मीवान मानव की मनोवृत्ति चंचल होती है। वित्त एक शक्ति है, उसके सहारे मानव देव भी बन सकता है और दानव भी। लक्ष्मी को केवल भोग प्राप्ति का साधन मानने वाला मानव पतन के गहरे गर्त में गिर जाता है, जबकि लक्ष्मी का मातृवत्‌ पूजन करके उसे प्रभु का प्रसाद मानने वाला मानव स्वयं तो पवित्र बनता ही है, पर सृष्टि को भी पावन करता है। विकृत मार्ग पर व्यय की हुई अलक्ष्मी होती है, स्वार्थ में व्यय की हुई लक्ष्मी वित्त कहलाती है, परार्थे व्यय किया हुआ धनलक्ष्मी और प्रभुकायार्थ जो व्यय की जाती है वह महालक्ष्मी। महालक्ष्मी हाथी पर बैठकर सज-धजकर आती हैं। हाथी औदार्य का प्रतीक है।

सांस्कृतिक कार्य में उदार हाथ से लक्ष्मी को व्यय करने वाले के पास लक्ष्मी पीढ़ियों तक रहती है। रघुवंश उसका ज्वलंत उदाहरण है। लक्ष्मी एक महान्‌ शक्ति होने के कारण अच्छे लोगों के हाथ में ही रहनी चाहिए, जिससे उसका सुयोग्य उपयोग हो। राजर्षियों के गुणगान करने वाली हमारी संस्कृति तथा कल्पना देने वाले ग्रीक तत्वचिंतक प्लेटो के मन में यही विचार रहे होंगे।

नरक चतुर्दशी : इस दिन महाकाली का पूजन होता है। परपीड़ा में व्यय की जाए वह अशक्ति, स्वार्थ के लिए व्यय की जाए वह शक्ति, रक्षणार्थ व्यय की जाए वह काली और प्रभुकार्यार्थ व्यय की जाए वह महाकाली है। अपने स्वार्थ के लिए शक्ति खर्च करने वाला दुर्योधन, दूसरों के चरणों में शक्ति रखने वाला कर्ण और प्रभु कार्य में शक्ति का हवन करने वाला अर्जुन- महाभारत में इन तीनों पात्रों का उत्कृष्ट चित्रण करके महर्षि वेदव्यास ने हमें स्पष्ट जीवनदर्शन दिया है।

नरक चतुर्दशी, काल चतुर्दशी भी कहलाती है। उसकी भी एक कथा है। प्रागज्योतिषपुर का राजा नरकासुर अपनी शक्ति से शैतान बन गया था। अपनी शक्ति से वह सभी को कष्ट देता था, इतना ही नहीं सौंदर्य का वह शिकारी स्त्रियों को भी परेशान करता था। उसने अपने यहाँ सोलह हजार कन्याओं को बंदी बनाकर रखा था। भगवान श्रीकृष्ण ने उसका नाश करने का विचार किया। स्त्री उद्धार का यह कार्य होने के कारण सत्यभामा ने नरकासुर का नाश करने का बीड़ा उठाया। भगवान कृष्ण मदद में रहे। चतुर्दशी के दिन नरकासुर का नाश हुआ। उसके कष्ट से मुक्त हुए लोगों ने उत्सव मनाया। अँधेरी रात को, दीप जलाकर उन्होंने उजाला किया। असुर के नाश से आनंदित हुए लोग, नए वस्त्र पहनकर घूमने निकल पड़े।

दिवाली : दिवाली यानी वैश्यों का हिसाब-बही के पूजन का दिन। समग्र वर्ष का लेखा विवरण बनाने का दिन। इस दिन मानव को जीवन का भी लेखा बनाना चाहिए। राग-द्वेष, वैर-जहर, ईर्षा-मत्सर तथा जीवन से कटुता दूर कर नए वर्ष के दिन में प्रेम, श्रद्धा और उत्साह बढ़ाने का ध्यान रखना चाहिए।

नया वर्ष : नया वर्ष बलि प्रतिपदा भी कहलाता है। तेजस्वी वैदिक विचारों की उपेक्षा करके वर्णाश्रम व्यवस्था को उध्वस्त करने वाले बलि का भगवान वामन ने पराभव किया था। उसकी स्मृति में बलि प्रतिपदा का उत्सव मनाया जाता है। बलि दानशूर था, उसके गुणों का स्मरण नए वर्ष के दिन हमें बुरे मानव में भी स्थित शुभत्व को देखने की दृष्टि देता है। कनक और कांता के मोह में अंधा बना हुआ मानव असुर बनता है, इसलिए बलि का पराभव करने वाले भगवान विष्णु ने कनक और कांता की ओर देखने की विशिष्ट दृष्टि देखने वाले दो दिन प्रतिपदा के पास रखकर, तीन दिन का उत्सव मनाने का आदेश किया।

दिवाली के दिन कनक यानी लक्ष्मी की ओर देखने की पूज्य दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए और भैयादूज के दिन समस्त स्त्री जाति को माँ या बहन की दृष्टि से देखने की शिक्षा लेनी चाहिए। स्त्री भोग्य नहीं है और त्याज्य भी नहीं है। वह पूज्य है, ऐसी मातृदृष्टि देने वाली संस्कृति ही मानव को विकारों के सामने स्थैर्य टिकाने की शक्ति दे सकती है। मोह यानी अंधकार। दीपोत्सव यानी अज्ञान और मोह के गाढ़े अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर प्रयाण।

दिवाली यानी दीपोत्सव। बाहर तो दीप जलाते हैं, परन्तु सही दीप तो दिल में प्रकट करना चाहिए। दिल में यदि अँधेरा हो तो बाहर प्रकट हुए हजारों दीप निरर्थक बन जाते हैं। दीपक ज्ञान का प्रतीक है। दिल में दीपक जलाना अर्थात्‌ निश्चित समझदारी से दिवाली का उत्सव मनाना। धनतेरस के दिन वित्त अनर्थ न मानकर जीवन को सार्थक बनाने की शक्ति मानकर महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। नरक चतुर्दशी के दिन जीवन में नरक निर्माण करने वाले आलस, प्रमोद, अस्वच्छता, अनिष्टता आदि नरकासुरों को मारना चाहिए। दिवाली के दिन 'तमसो मा ज्योतिर्गमय!' मंत्र की साधना करते-करते जीवन पथ प्रकाशित करना चाहिए, जीवन की बही का लेखा विवरण बनाते समय जमा में ईशकृपा रहे, इसलिए प्रभु कार्य के प्रकाश से जीवन को भर देना चाहिए।

नए वर्ष के दिन पुराना वैर भूलकर शत्रु का भी शुभचिंतन करना चाहिए। नया वर्ष यानी शुभ संकल्प का दिन। भैयादूज के दिन स्त्री की ओर देखने की भद्र दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए और भाई के स्नेह से समस्त स्त्री जाति को बहन के रूप में स्वीकार करना चाहिए। ऐसी सुंदर समझ देने वाला ज्ञान दीपक यदि दिल में हो तो हमारा जीवन सदैव दीपोत्सवी बना रहेगा।
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