दीप की तरह सदा मुस्कुराएँ

अपने दीप आप स्वयं बनें

स्मृति आदित्य
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इस दीपोत्सव पर ध्यान से देखिए। बस, एक नन्हा सा दीप। नाजुक सी बाती। उसका शीतल सौम्य उजास। झिलमिलाती रोशनियों के बीच इस कोमल दीप का सौन्दर्य बरबस ही मन मोह लेता है। कितना सात्विक, कितना धीर। बेशुमार पटाखों के शोर में भी शांत भाव से मुस्कराता हुआ। टूट कर बिखर-बिखर जाती अनार की रोशन लड़‍ियों के बीच भी जरा नहीं सहमता, थोड़ा सा झुकता है और फिर तैयार पूरी तत्परता से जहान को जगमगाने के लिए। यही है संदेश दीपों के स्वर्णिम पर्व का।

भारतीय संस्कृति के अनमोल रत्नों में से एक है दीपावली का झिलमिल पर्व। एक ऐसा पर्व, जो हर मन की क्यारी में खुशियों के दिपदिपाते फूल खिलाता है। एक ऐसा पर्व जो हर अमीर-गरीब को अवसर देता है स्वयं को अभिव्यक्त करने का । यह त्योहार ना सिर्फ सांस्कृतिक या पौराणिक रूप से बल्कि कलात्मक और सृजनात्मक रूप से भी मन की भावाभिव्यक्तियों के प्रवाहित होने का अवसर देता है।

इस दीपोत्सव पर जब सबसे पहला दीप रोशन करें तो याद करें राष्ट्रलक्ष्मी को। कामना करें कि यह राष्ट्र और यहाँ विराजित लक्ष्मी, सदैव वैभव और सौभाग्य की अधिष्ठात्री बनी रहें। दूसरा दीप जलाएँ तो याद करें सीमा पर तैनात उन 'कुलदीपकों' को जिनकी वजह से आज हमारे घरों में स्वतंत्रता और सुरक्षा का उजाला है। तीसरा दीप प्रज्जवलित करें इस देश की नारी अस्मिता के नाम। जो परिवर्तित युग की विकृतियों से जुझते हुए भी जीत की मशाल लिए निरंतर आगे बढ़ रही है। बिना रूके, बिना थके और बिना झुके।

जब लक्ष्मी पूजा की सोलह दियों की 'दीवी' स्थापित करें तो संकल्प लें मन की सोलह बुराइयों पर विजय प्राप्ति का। और सोलह अच्छाइयों को कायम रखने का। ढूँढें अपने मन की सोलह बुराई और सोलह अच्छाई। सोलह का लक्ष्य निश्चय करें और कम से कम मन की एक बुराई पर विजय हासिल करने का प्रयास अवश्य करें। सबसे जरुरी अपने मन के आँगन में एक दीप धरें आत्मविश्वास का। बस यही एक दीप बुराइयों से बचाता है और अच्छाइयों को बचाए रखता है।

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हमारी संस्कृति का सुंदर संदेश है : अप्पो दिपो भव:। अपने दीप आप स्वयं बनें। स्वयं को स्वयं की चेतना से रोशन करें। खुद ही दीपक बन जाएँ खुद के लिए। यह देह माटी की है माटी में मिल जानी है। यह दीप भी माटी का है अंतर कहाँ रहा? आत्मा बाती है बस इसे प्रज्वलित करने का दायित्व निभाना है।

हर उस बात को, उस रिश्ते को, उस नाम को मन-आँगन से हटा देना है जो पीड़ा देता है। जो मन में कलुष का संचार करता है। नहीं,आज का युग क्षमा का नहीं भूल जाने का है। क्षमा कुपात्र को नहीं मिलनी चाहिए। कुपात्र को अपने जीवन से, अपने मन से निकाल बाहर करना ही पर्याप्त है। क्षमा देने और क्षमा माँगने दोनों की ही जरुरत नहीं होगी जब आपके जीवन में वह होगा ही नहीं। इस दीप पर्व पर दिल नहीं दिएँ जलाएँ। सांसारिक झिलमिलाती रोशनियों के बीच सुकोमल दीप से सदा मुस्कुराएँ।

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