पर्व पर कलात्मक परंपरा जीवित रहे

खूबसूरत माँडनों से सजा शहर इंदौर

स्मृति आदित्य
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भारतीय संस्कृति के अनमोल रत्नों में से एक है दीपावली का झिलमिल पर्व। एक ऐसा पर्व, जो हर मन की क्यारी में खुशियों के दिपदिपाते फूल खिलाता है। एक ऐसा पर्व जो हर अमीर-गरीब को अवसर देता है स्वयं को अभिव्यक्त करने का। यह त्योहार ना सिर्फ सांस्कृतिक या पौराणिक रूप से बल्कि कलात्मक और सृजनात्मक रूप से भी मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त होने का अवसर देता है।

इस दृष्टि से इंदौर उमंग और उन्नति से मुस्कुराता शहर कहा जा सकता है। इंदौर की सुंदर संस्कृति में यह सारी विशेषताएँ हैं। चाहे समय के अनुरूप शहर तेजी से बदला हो लेकिन आज भी पर्वों पर खुशी मनाने की बेला हो, घर को खूबसूरती से सँवार कर बेहतर दर्शाने की कोशिश, यह उत्सवधर्मी शहर तबियत से खिल-खिल उठता है।

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तीज-त्योहार हो या मेले-प्रदर्शनी शहरवासियों का उल्लास चारों दिशाओं से छलक-छलक पड़ता है। मान्यता है कि रक्षाबंधन का पर्व ब्राह्मणों का, होली शुद्रों का, दशहरा क्षत्रीय का तथा दीपावली व्यापारियों का त्योहार है। दीपावली पर्व मनाने की यशस्वी परंपरा इस शहर के लिए इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि दीप पर्व मुख्य रूप से व्यापारियों का त्योहार माना गया है। इंदौर इस मायनों में प्रदेश की व्यापारिक राजधानी है।

इंदौर की सांस्कृतिक विरासत भी सदा से समृद्ध रही है। कलात्मक सौन्दर्य इस शहर के कोने-कोने में दिखाई पड़ता है। व्रत-त्योहारों पर आकर्षक महीन माँडनों और सजीली रंगोली से शहर चमक उठता है। यूँ तो हर पर्व के लिए यहाँ विशेष प्रकार के माँडने बनाए जाते हैं लेकिन दीपपर्व पर माँडनों और अल्पनाओं का विशेष महत्व है। हालाँकि समय के साथ रेडीमेड माँडनों का चलन बढ़ा है बावजूद इसके शहर के कुछ जागरूक संस्कृतिप्रेमियों ने इस परंपरा को जीवित रखा है। यही वजह है कि नवरात्रि से ही विशेष माँडना क्लासेस, कार्यशालाएँ, क्लबों व संगठनों में प्रशिक्षण आदि आरंभ हो जाता है। खूबसूरत आकृति और ज्यामितीय चमत्कार से माँडनों के अनूठे लुभावने रूप देखने को मिलते है।

शहर की बुजुर्ग महिलाएँ बताती हैं कि उनके जमाने में गोबर और पीली मिट्टी में गेरू मिलाकर आँगन को लीपा जाता था। लीपने के समय ही अपनी कल्पना का हल्का सा स्पर्श देकर छोटे-छोटे कँगूरे बनाए जाते थे। आँगन सूखने के बाद बड़ा सा माँडना यानी चौक 'पूरा' जाता था। मालवा में माँडना बनाने को 'चौक पूरना' कहा जाता है। यूँ तो इसे राजस्थान से चलकर आई कला माना जाता है। मगर इस संबंध में विभिन्न मत है। गेरू और खड़‍िया को भिगोकर घोल बनाया जाता था फिर रुई यानी कपास को डूबोकर अपनी अँगुली से इस तरह पकड़ा जाता कि कपास में बहकर आया घोल अँगुली के माध्यम से आकृति बनाने में सहायक हो सके। कम शब्दों में समझाएँ तो अँगुली से ब्रश का काम लिया जाता था।

माँडना हर कमरे के हिसाब से अलग होता है। जैसे पूजाघर का माँडना, रसोईघर का माँडना, बीच आँगन का माँडना, दहलीज का माँडना, मुँडेर का माँडना, तुलसी चौरे का माँडना, बैठक का माँडना सब अलग डिजाइन के होते हैं और दिलचस्प तथ्य यह कि हर एक के पीछे एक विशिष्ट कारण, महत्व और कथा छुपी है। जैसे पूजाघर में सोलह दीवी, लक्ष्मीजी के पग, गाय के खुर और अष्टदल कमल बनाए जाने का महत्व है। गाथा यह है कि प्रतीकात्मक रूप से लक्ष्मी आगमन की यह तैयारी है। माँ लक्ष्मी जब पूजा घर में पधारेंगी तो मंगल चिन्ह देखकर प्रसन्नता से विराजित होंगी।

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रसोई घर में माँ अन्नपूर्णा की कृपादृष्टि बनी रहे इस हेतु विशेष फूल के आकार की अल्पना बनती है जिसके पाँच खाने बनते हैं। हर खाने में विभिन्न अनाज-धन-धान्य को प्रतीक स्वरूप उकेरा जाता है। गोल आकार में बनी इस अल्पना के बीच में दीप धरा जाता है।

सबसे खास होता है बीच आँगन का माँडना। यह दीप पर्व का विशेष आकर्षण होता है। ज्यामितीय मापन को ध्यान में रखते हुए इसे विशेष सावधानी और मेहनत से खुब बड़ा बनाया जाता है। एकरूपता और बारीक भरन(अल्पना के भीतर उकेरे जाने वाले बेलबूटे) इसकी खास विशेषता होती है। इसमें माँ लक्ष्मी से माँगे जाने वाले हर वरदान यश, सुख, संपन्नता, समृद्धि, वैभव, कीर्ति, वंशवृद्धि,मंगल कार्य आदि को कलात्मक अंदाज में संजोया जाता है। इसी तरह दहलीज की अल्पना में स्वागत चिन्ह के रूप में मोर, तोता, सूर्य, चन्द्र दीपकों की पंक्ति बनाई जाती है।

मुँडेर पर बिखरे फूल सजाए जाते हैं वहीं तुलसी चौरे पर एक गूँथी हुई बेल सजाई जाती है। बैठक का माँडना छोटा मगर चोकोर होता है। इसके चार कोने इस तरह से सजाए जाते हैं कि चारों दिशाओं से पधारे देवी-देवताओं की आराधना और स्वागत हो सके।

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समय के साथ यह खूबसूरत कला शहर में सिमटती जा रही है। लेकिन आसपास के ग्रामीण अंचलों में आज भी उसी दमक और सौन्दर्य के साथ विद्यमान है। कला के सिमटने का एक अहम कारण यह भी है कि व्यस्तताएँ हमारी परंपराओं पर हावी होती जा रही है। दूसरे, साजसज्जा के नित नवीन अत्याधुनिक तरीके और उपकरण प्रति‍‍दिन दस्तक दे रहे हैं। ऐसे में माँडना को आज की पीढ़ी 'ओल्ड फैशन' और 'टाइम टेकिंग' मानती है।

और फिर अब घरों से कच्चे आँगन भी लापता हो रहे हैं जिसकी सौंधी महक में उकेरे चौक-माँडने समूचे घर को पवित्र और मंगलमयी अहसास दे सकें। बावजूद इस सबके अगर इस कला को बचाए जाने के उपक्रम हो रहे हैं तो यह प्रशंसनीय है। भले ही गेरू और खड़‍िया का स्थान ऑइल और फैब्रिक कलर ने ले लिया हो लेकिन कला ने अपना स्वरूप नहीं खोया है।

यही वजह है कि इंदौर के कलेक्टरेट की दीवारों पर सजे माँडने बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। इस दीप पर्व पर हम आशा करें कि कलात्मक सौन्दर्य की यह अभिव्यक्ति पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहे। घर के आँगन में ना सही शहर की दीवारों पर ही मुखरित होती रहे लेकिन साँस तो लेती रहे।

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