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Dussehra katha: दशहरा की 4 पौराणिक कथाएं, जिनके कारण मनाया जाता है यह पर्व

WD Feature Desk
शनिवार, 27 सितम्बर 2025 (13:24 IST)
Dussehra 2025: आश्विन शुक्ल की दशमी को मनाए जाने वाले त्योहार को विजयादशमी और दशहरा कहते हैं। इस दिन माता दुर्गा के रूप कात्यायनी देवी ने महिषासुर का वध किया था और इसी दिन प्रभु श्रीराम ने रावण वध किया था परंतु इन दो कथाओं के अलावा भी है 2 अन्य पौराणिक कथाएं। आओ जानते हैं संक्षिप्त में ये कथाएं। 
 
1. महिषासुर मर्दिनी कथा: रम्भासुर का पुत्र था महिषासुर, जो अत्यंत शक्तिशाली था। उसने कठिन तप किया था। ब्रह्माजी ने प्रकट होकर कहा- 'वत्स! एक मृत्यु को छोड़कर, सबकुछ मांगों। महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- 'ठीक है प्रभो। देवता, असुर और मानव किसी से मेरी मृत्यु न हो। किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु निश्चित करने की कृपा करें।' ब्रह्माजी 'एवमस्तु' कहकर अपने लोक चले गए। वर प्राप्त करने के बाद उसने तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमाकर त्रिलोकाधिपति बन गया। तब सभी देवताओं ने भगवती महाशक्ति की आराधना की। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया। माता ने महिषासुर ने 9 दिन तक युद्ध करने के बाद 10वें दिन उसका वध कर दिया इसलिए विजयादशमी का उत्सव मनाया जाता है। महिषासुर एक असुर अर्थात दैत्य था वह राक्षस नहीं था। कहते हैं कि इसी दिन देवी सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अग्नि में समा गई थीं। बाद में उन्होंने हिमावान के यहां पार्वती के रूप में जन्म लिया था। 
 
2. राम रावण कथा: अयोध्या के राजा दशहरथ के पुत्र प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। वन में उनके साथ उनकी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण भी गए। वन में 12 वर्ष गुजर जाने के बाद एक समय वे गोदावरी नदी के पास पंचवटी में कुटिया बनाकर रहने लगे। वहां पर लंका के राजा रावण ने छल से माता सीता का अपहरण कर लिया। इसके बाद प्रभु श्रीराम ने हनुमानजी, सुग्रीव, जामवंत और वानर सेना के माध्यम से समुद्र पर सेतु बनाया और लंका पर चढ़ाई कर दी। कहते हैं कि प्रभु श्रीराम और रावण का युद्ध कई दिनों तक चला अंत में श्रीराम ने दशमी के दिन रावण का वध कर दिया था। रावण एक राक्षस था वह असुर नहीं था। रावण वध के कारण ही दशहरा मनाया जाता है। इस दिन रावण के पुतले का दहन होता है। 
 
3. पांडव विजय उत्सव: यह भी कहा जाता है कि इसी दिन पांडवों ने कौरवों पर विजय प्राप्त की थी। परंतु इसकी कोई पुष्टि नहीं है। महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था जो 18 दिन तक चला था। असल में इस दिन अज्ञातवास समाप्त होते ही, पांडवों ने शक्तिपूजन कर शमी के वृक्ष में रखे अपने शस्त्र पुनः हाथों में लिए एवं विराट की गाएं चुराने वाली कौरव सेना पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी। कहते हैं कि इसी दिन पांडवों को वनवास हुआ था।
 
4. कुबेर कथा: माना जाता है कि दशहरे के दिन कुबेर ने राजा रघु को स्वर्ण मुद्रा देते हुए शमी की पत्तियों को सोने का बना दिया था, तभी से शमी को सोना देने वाला पेड़ माना जाता है। कथा के अनुसार अयोध्या के राजा रघु ने विश्वजीत यज्ञ किया। सर्व संपत्ति दान कर वे एक पर्णकुटी में रहने लगे। वहां कौत्स नामक एक ब्राह्मण पुत्र आया। उसने राजा रघु को बताया कि उसे अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देने के लिए 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता है। तब राजा रघु कुबेर पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गए। डरकर कुबेर राजा रघु की शरण में आए तथा उन्होंने अश्मंतक एवं शमी के वृक्षों पर स्वर्णमुद्राओं की वर्षा की। उनमें से कौत्स ने केवल 14 करोड़ स्वर्णमुद्राएं ली। जो स्वर्णमुद्राएं कौत्स ने नहीं ली, वह सब राजा रघु ने बांट दी। तभी से दशहरे के दिन एक दूसरे को सोने के रूप में लोग अश्मंतक के पत्ते देते हैं।
 
यह भी कहा जाता है कि एक बार एक राजा ने भगवान का मंदिर बनवाया और उसमें प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए एक ब्राह्मण को बुलाया। ब्राह्मण ने दक्षिणा में 1 लाख स्वर्ण मुद्राएं मांग ली तो राजा सोच में पड़ गया। मनचाही दक्षिण दिए बगैर ब्राह्मण को लौटाना भी उचित नहीं था तो उसने ब्राह्मण को एक रात महल में ही रुकने का कहा और सुबह तक इंतजाम करने की बात कही। रात में राजा चिंतित होते हुए सो गया तब सपने में भगवान ने दर्शन देककर कहा कि शमी के पत्ते लेकर आओ मैं उसे स्वर्ण मुद्रा में बदल दूंगा। यह सपना देखते ही राजा की नींद खुल गई। उसने उठकर शमी के पत्ते लाने के लिए अपने सेवकों को साथ लिया और सुबह तक शमी के पत्ते एकत्रित कर लिए। तभी चमत्कार हुआ और सभी शमी के पत्ते स्वर्ण में बदल गए। तभी से इसी दिन शमी की पूजा का प्रचलन भी प्रारंभ हो गया।
 

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