जीत सको तो लिप्सा को जीतो !

Webdunia
- अशोक चतुर्वेदी

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धरती पर बहुत कम ऐसे समाज हैं जिन्होंने सामाजिक आचरण के मानदंडों को पर्व-त्यौहार की रांगोली से सजाया है। भारतीय समाज की उत्सवप्रियता न सिर्फ जन्म बल्कि मरण तक को मना लेने की अद्भुत कूवत रखती है। राम और रावण की शक्ल में हमने जो प्रतिमाए ँ सदियों पहले गढ़ ली थीं, उनकी चमक और आकर्षण आज भी बरकरार है।

शायद यह तब तक बना रहेगा जब तक गंगा-जमुना में पानी है। जब तक समाज है तब तक वह भले और बुरे में भेद करेगा, अच्छे की तरफ ललक और बुरे से बचने की कोशिशें जारी रहेंगी। दरअसल, सभ्यता की पूरी जय-यात्रा आदर्शों और नियम-हीनता के बीच झूलता पेंडुलम है। जिस घड़ी यह थम जाएगा, जीवन-प्रवाह भी रूक जाएगा और शायद सृष्टि का क्रम भी !

आज जिस समय को हम जी रहे हैं, वह विसंगतियों और विद्रूप से उतना ही लबरेज है जितना राम-रावण के समय हुआ करता था । आज भी पराई चीज को बिना कीमत चुकाए या औने-पौने में हड़प लेने की, सारी धरती के धन-वैभव और समृद्धि को अपने कदमों तले बिछा लेने की हवस जहाँ-तहाँ लपलपा रही है। जिस-जिस ने क्षमता और ताकत बटोरी ली है, वह उतने भर से संतुष्ट नहीं है। हमें और-और चाहिए, किसी भी कीमत पर चाहिए। रावण के पास मंदोदरी जैसी रूपवती और बुद्धिमती स्त्री थी।

उसके रनिवास भाँति-भाँति के आकर्षणों से गुलजार थे, भोग और राग-रंग की कोई कमी न थी। इतनी समृद्धि, ऐश्वर्य और वैभव कि इंद्र की नगरी भी पानी भरे। इतना पांडित्य, कि असुर गुरू शुक्राचार्य की चमक फीकी पड़ जाए। इतनी शक्ति कि यम और दिक्‌पाल काँपे। फिर क्या था जिसकी कमी उसे अपनी अपार बुद्धि और बाहुबल के बावजूद सालती रही? आखिर क्या था जो युद्ध और अंततः उसके पतन का कारण बना? जिसकी वजह से रावण और उसके वंश का समूल नाश हुआ? वह थी - लिप्सा।

लिप्सा की लपट को संतुष्ट करने के लिए सात समुद्रों की अनगिनत लहरें भी थोड़ी पड़ जाती हैं। इसकी लपलपाती जीभ कुछ भी बाकी नहीं छोड़ती। जब यह जाग उठती है तो सिर छिपाने को एक छत नहीं, कई अट्टालिकाएँ ओछी पड़ती है। वासना की तृप्ति के लिए, एक नहीं सैंकड़ों - हजारों रानियाँ कम पड़ जाती हैं और पराई पत्नी देखकर लार टपक पड़ती है।

विजयादशमी, चुपके से एक संदेश छोड़ जाती है कि समाज में बसना हो तो नियम-कायदों की डोर से बँधना सीखो। एक सुखी और सार्थक जिंदगी बसर करनी हो तो संतोष करना सीखो। उतने से संतुष्ट रहो, जो वाकई तुम्हारे हिस्से का है। मारकाट और गलाकाट स्पर्धा, आखिरकार रक्तपात और मरण का ही सबब बनती है।

सवाल यह है कि क्या विजयादशमी के इस सीधे-साधे संदेश को सुनने और गुनने के लिए किसी के पास थोड़ा भी वक्त और धीरज है?

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