दशहरा उत्सव : विजय का प्रतीक

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दशहरे का उत्सव यानी शक्ति और शक्ति का समन्वय समझाने वाला उत्सव। नवरात्रि को नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए नाच उठे यह बिलकुल स्वाभाविक है। इस दृष्टि से देखने पर दशहरे का उत्सव अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव।

भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। यदि युद्ध अनिवार्य ही हो तो शत्रु के आक्रमण की राह न देखकर उस पर आक्रमण कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। शत्रु हमारे राज्य में घुसे, लूटपाट करे फिर उसके बाद लड़ने की तैयारी करें इतने नादान हमारे पूर्वज नहीं थे। वे तो शत्रु का दुर्व्यवहार जानते ही उसकी सीमाओं पर धावा बोल देते थे। रोग और शत्रुओं को तो निर्माण होते ही खत्म करना चाहिए। एक बार यदि वे दाखिल हो गए तो फिर उन पर काबू प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।

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प्रभु रामचंद्र के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक बना है। भगवान रामचंद्र ने रावण को मात करने के लिए इसी दिन प्रस्थान किया था। छत्रपति शिवाजी ने भी औरंगजेब को हैरान करने के लिए इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। हमारे इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे।

वर्षा की कृपा से मानव धन-धान्य से समृद्ध हुआ हो, उसका मन आनंद से पूर्ण हो, नस-नस में उत्साह के झरने बह रहे हो। तब विजय प्रस्थान करने का मन होना स्वाभाविक है। बरसात के चले जाने से रास्ते का कीचड़ भी सूख गया हो, हवा और तापमान अनुकूल हो, आकाश स्वच्छ हो, ऐसा वातावरण युद्ध में अनुकूलता ला देता है।

नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके प्राप्त की हुई शक्ति ही शत्रु का संहार की प्रेरणा देती है। दशहरे पर दुर्गुणों के रावण के अलावा कुरीतियों के रावण भी जलाए जाने चाहिए। तभी दशहरा पर्व सार्थक होगा।

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