दशहरा एक : अर्थ अनेक

विजयादशमी पर्व विशेष

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उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक दशहरे और रामायण की छाप निराली है। रामकथा की व्याख्या तो भारत के विभिन्न प्रांतों से लेकर सुदूर थाईलैंड और इंडोनेशिया तक अनेक भाषाओं में गाई, सुनी और सुनाई जाती है। भारतीयों के जीवन और संस्कृति पर रामायण का असर बराबर दिखता है। समय के साथ धूमधाम बढ़ती गई है।

मालवा में दशहरे को प्रकृति के साथ जोड़कर भी रखा गया। प्रकृति और समाज के बीच भावनात्मक रिश्ते का यह रूप निराला रहा है। अब तो शमी के पेड़ ही कम दिखते हैं। फिर भी शमी के पेड़ की पत्तियाँ लाकर बड़े-बूढ़ों या साथियों को देकर प्रणाम करने की अद्भुत परंपरा रही है। इन पत्तियों को बहुमूल्य 'सोना' कहकर दिया जाता है। मतलब यही कि यदि राम ने लंका विजय की थी, तो वहाँ के जंगलों की प्राकृतिक संपदा सोने की तरह उपयोगी थी। शमी की पत्तियाँ आयुर्वेद की दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए उपयोगी मानी जाती रही हैं।

वैसे मालवा हो या उत्तराखंड अथवा हिमाचल प्रदेश या झारखंड, प्राकृतिक संपदा- पेड़-पौधे, पानी, खनिज की रक्षा का दायित्व राम की सेना और जनता का ही माना जाएगा। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में सत्ता और आम जनता के बीच दूरी कम करने वाला त्योहार दशहरा ही माना जाता है। असम के लखीमपुर क्षेत्र में एक बौद्ध मठ में रामकथा की जो पांडुलिपि रखी है उसमें गौतम बुद्ध को राम का अवतार बताया गया है।

खामती भाषा में रामायण में राम के राज्याभिषेक का एक दिलचस्प संवाद है जो सत्ता में उदार रुख का ज्ञान देता है। इस रामायण में राज्याभिषेक से पहले राम को शिक्षा दी गई है- 'किसी अपराधी को दंड देते समय सत्य पर अडिग रहा जाए। अपराधों के लिए अपराधी को निर्धारित आधी सजा दी जाए। कैदी को प्यार से जीतने की कोशिश की जाए, क्रोध से नहीं, तभी तुम अपनी प्रजा की आँखों के तारे बन सकते हो।'

वनवास के समय जब ऋषि-मुनियों ने राम को आतंकवादी राक्षसों द्वारा मारे गए तपस्वियों तथा मासूम लोगों की हड्डियों का ढेर दिखाया था, तो उन्होंने भुजा उठाकर प्रण किया था कि 'मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा ('निसिचर हीन करों महि भुज उठाई प्रन कीन्ह')।' इस प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए राजा राम ने हर जाति, समुदाय तथा वानर सेना की सहायता ली। अब तो आतंकवादी दानव पूरी दुनिया में तबाही मचा रहे हैं इसीलिए संपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एकजुट होकर इन दानवों को मारने के लिए संघर्ष करना होगा।

भारत की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो गई है। रामायण-काल में भले ही राक्षसों के राजा भी किसी इष्ट देव की आराधना कर शक्ति प्राप्त करते रहे हों या विद्वान रहे हों लेकिन आधुनिक युग के राक्षसों का कोई धर्म-ईमान नहीं है। आतंकवादियों को किसी धर्म विशेष के जेहाद के रूप में नहीं देखा जा सकता। दशहरे पर केवल रावण के पुतले का दहन करने के साथ हर्षध्वनि करने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता।

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भारत के विभिन्न प्रांतों में आतंकवादियों ने अपना जाल बिछा रखा है इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता में कोई हो, जनता भी आतंकवाद से निपटने के लिए अधिक सतर्क और सक्रिय हो। भारत में आतंकवाद दो रूपों में अधिक तबाही कर रहा है। एक रूप वह है, जो आतंकवादी गतिविधियों से तबाही के साथ भारत के कुछ हिस्सों को अलग करना चाहता है।

दूसरा रूप- हिंसक तरीकों से कुछ इलाकों पर कब्जा जमाकर सत्ता को चुनौती देते हुए लोकतंत्र की हत्या करने का है। भारत की एकता और संप्रभुता को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील तत्वों से निपटने की जिम्मेदारी तो सेना या अर्द्धसैनिक बल उठा लेते हैं लेकिन आदिवासी अंचलों में मासूम गरीब लोगों को भ्रमित और उत्तेजित कर उन्हें मोहरा बनाकर हिंसा में सक्रिय दानवी तत्व अधिक खतरनाक हैं। इन परिस्थितियों में रामायण-काल की अवधारणा अपनाकर हर दुष्ट दानव को समाप्त करने का तरीका ही उचित है।

विजयादशमी का पर्व वास्तव में दानवी मानसिकता पर विजय के उत्सव के रूप में ही मनाया जाना चाहिए। हिमाचल से बंगाल तक दशहरे से पहले नौ दिन जिस तरह दुर्गा के विभिन्न रूपों की आराधना होती है, वह भी दानवी शक्तियों के विनाश के संकल्प के रूप में ही है। अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में हो या किसी देवी शक्ति के रूप में, असली लक्ष्य दानवी ताकतों को नष्ट कर जनता को सुख-शांति दिलवाना है।

बुराई पर अच्छाई की जीत का अभियान किसी क्षेत्र, प्रदेश और देश तक सीमित नहीं रह सकता। संपूर्ण दुनिया को पाशविक मानसिकता से मुक्ति दिलाने के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। उम्मीद की जाए कि कम से कम भारत में दशहरे का असली महत्व और अर्थ समझा जाएगा। दशहरे पर सदबुद्धि और शक्ति की शुभकामनाएँ।

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