राम ने की थी प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना

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- डॉ. एच.एस. गुगालिया

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भगवान राम के अवतरण के पूर्व भी राज्य तंत्र था और राजा प्रजापालन भी करते थे, किंतु वे प्रजा की उनके किसी कार्य की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका कदाचित ही चिंतन करते थे। भगवान राम ने प्रजा की इच्छानुकूल राज्य व्यवस्था की थी।

वनगमन के समय जब अनुज लक्ष्मणजी साथ चलने का जोरदार आग्रह करने लगे, तब प्रजातंत्र का अनन्यतम सूत्र प्रकट करते हुए श्रीराम कहते हैं, 'हे भाई! तुम यहीं (अयोध्या में) रहो और सबका परितोष करो। अन्यथा बहुत दोष लगेगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दुःखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है।'

ऐसी नृप नीति होने के कारण ही उनके राज्य में सभी सुखी रहते थे। भगवान त्रेतायुग के युगपुरुष थे। सतयुग में धर्म चारों पैरों पर स्थिर रहता है, तो त्रेता में मात्र तीन पदों पर, किंतु तत्समय उनके रामराज्य में ऐसा विलक्षण काल आया, जो सतयुग से भी गुरुतर हो गया। निषादराज तथाकथित निम्न जाति के होने पर भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने उनके साथ जो सखा धर्म निभाया, यही प्रजातंत्र का भी मूल ध्येय है। प्रभु राम उनको कहते हैं, 'हे मित्र! तुम भरत तुल्य मेरे भ्राता हो। अयोध्या में आते-जाते रहना।'

राम के गुणों से माता कैकेयी भी अभिभूत थीं। दासी मंथरा ने माँ को उकसाने की बहुत चेष्टा की, किंतु माता कैकेयी ने राम के बारे में जो कहा वह अविस्मरणीय रहेगा, 'राम धर्म के ज्ञाता, गुणवान, जितेंद्रिय, कृतज्ञ, सत्यवादी और पवित्र होने के साथ-साथ महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं, अतः युवराज होने के योग्य वे ही हैं। वे दीर्घजीवी होकर अपने भ्राताओं और भृत्यों का पिता के सदृश पालन करेंगे। उनके अभिषेक से तू इतना क्यों जल-भुन रही है? मेरे लिए तो जैसी भरत के लिए मान्यता है, वैसी ही बल्कि उससे भी अधिक राम के लिए है, क्योंकि वे कौशल्या से भी बढ़कर मेरी सुश्रूषा करते हैं।'

प्रजाप्रिय राज्य सत्ताधीन व्यक्ति में इन्हीं गुणों का समावेश होना चाहिए कि प्रजा उसको माता-पिता, बंधु-सखा समझे और वह सबका विधि-विधान के अनुसार रक्षा, सेवा एवं परिपालन करे। विधना के लेख के कारण राज्याभिषेक के बजाए राम को मंथरा-कैकेयी की दुरभि संधि के कारण वन गमन करना पड़ा, किंतु राम ने किसी को दोषी नहीं ठहराया, यहाँ तक कि भाग्य को भी नहीं। और राम पिता का तख्त बटोही की तरह छोड़कर चल दिए।

पथिक को मार्ग में पड़ने वाले पड़ावों पर कोई मोह नहीं होता है, वैसे ही चक्रवर्ती सम्राट का सिंहासन छोड़कर वन की विपदा को सहन करने के लिए राम अग्रसर हो गए। कविता वाली के अयोध्या कांड की ये ही पंक्तियाँ प्रजातंत्र का मूलमंत्र होना चाहिए।

आज सत्ता है, कल नहीं रहेगी, तो उसके लिए भ्रष्टाचरण, दुरभि संधि करके सत्ता पर चिपके रहना अनुचित ही है। राज्य मिलता है और जाता है, किंतु प्रजातंत्र में बुद्धिमान लोग इसके लिए हंगामा खड़ा नहीं करते हैं, न ही सड़कों पर, सभाओं में हंगामा बरपाते हैं। वे तो प्रजा के पास पुनः जाते हैं और उनको स्वविवेक से मतदान करने को कहते हैं। ऐसी ही लोकतंत्र की प्रणाली होना चाहिए।

महाराज राम का राज्याभिषेक होने वाला था। प्रजा उत्सव मना रही थी और प्रातःकाल की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थी। तभी हृदय विदारक समाचार मिला कि राम, जानकी और लक्ष्मण वन जा रहे हैं, तो भीड़ अयोध्या के राजमहल की ओर उन्मुख हुई। आमजन भी अपने वनगमन करने वाले राजा के साथ-साथ जाने को तैयार हो गए, यह कहते हुए कि 'जहाँ राम रहेंगे, वहीं समाज (पूरी प्रजा) रहेगा। बिना राम के अयोध्या में हमारा क्या काम है?' यह है प्रजा का अपने राजा के प्रति समर्पण और प्यार।

इसी प्रकार प्रभु राम जब लंका विजय करके अयोध्या लौट रहे थे, तो वियोग दग्ध प्रजा समाचार पाते ही दौड़ पड़ी, अपने राजा राम को मिलने। किसी को अपना होश नहीं था। प्रभु ने प्रजा की यह दशा देखकर एक कौतुक कर डाला। उसी समय कृपालु राम ने स्वयं को असंख्य रूपों में प्रकट कर दिया और सबसे यथायोग्य मिले।

प्रभु ने सभी के दोष, दुःख, दारिद्र को क्षीण कर डाला। आदर्श प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिनिधि स्वयं का घर नहीं भरता है, बल्कि प्रजा के दुःख एवं दारिद्र को उनके घर से बाहर कर देता है। ऐसी स्थिति में नेता को मत माँगने, मतदाताओं को घूस देने, प्रचार में पैसे खर्च करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
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