इस बदलाव का स्वागत कीजिए

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष संपादकीय

जयदीप कर्णिक
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देश का संक्रमण काल महत्वपूर्ण दौर में पहुँच गया है। यों तो हर देश और समाज किसी ना किसी स्तर पर संक्रमण काल से गुजर रहा होता है। क्योंकि यदि संसार में कोई चीज स्थायी है तो वो है ‘परिवर्तन’।

परिवर्तन की इस सतत प्रक्रिया से गुजरकर ही सृष्टि इस मुकाम पर पहुँची है। लेकिन एक देश के इतिहास में संक्रमण काल और स्थायित्व के चक्र का विशेष महत्व होता है। पुनर्जागरण के एक लंबे संक्रमण काल से गुजरकर यूरोप के तमाम देश आज का अपना आधुनिक समाज रच पाए।

पुनर्जागरण और सामाजिक परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण काल में भारत पिछड़ गया। क्योंकि हम गुलामी कि जंजीरों में जकड़े थे। दुनिया में जब रक्तरंजित क्रांतियाँ हो रही थीं हम अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। आजादी की जंग में तो हम आखिर कामयाब हो गए, लेकिन सामाजिक परिवर्तन की क्रांति अब भी बाकी है।

दुनिया में आज फिर क्रांतियों का दौर चल रहा है। तहरीर चौक पर जमा भीड़ ने बिना खून-खराबे के 70 साल पुरानी तानाशाही का तख्ता पलट दिया। लीबिया में गद्दाफी को भी सत्ता से हटना पड़ा और उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। सीरिया में संघर्ष जारी है। ये सारे देश लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं।

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव हासिल है। फिर भी पिछले कुछ सालों में पूरे समाज में एक अजीब सी कसमसाहट है। एक छटपटाहट है- बदलाव के लिए। परिवर्तन की यह चाहत बहुत अहम है और इसे गंभीरता से समझना होगा।

मिस्र में क्रांति हो जाने भर से ही सारे लोग अचानक खुशहाल नहीं हो गए। बल्कि बहुत सारे लोग क्रांति के बाद भी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। लोकतंत्र कि ख्वाहिश में जिन लोगों को उन्होंने सत्ता सौंपी, अब उनमें जनता को नए तानाशाह नजर आ रहे हैं। लगभग यही हाल भारत का है।

आजादी के बाद जिन लोगों के हाथ में खुशहाल भारत बनाने की कमान थी, उन्होंने ही जनता को लूटने-खसोटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जनता को लगा कि बस अंग्रेज चले गए, उनकी जगह नए शासक आ गए। अण्णा हजारे ने तो अपने मंच से सरकार को काले अंग्रेज तक कह दिया। इस स्थिति के लिए बहुत हद तक राजनेता और कुछ हद तक जनता खुद भी जिम्मेदार है।

ऐसा भी नहीं के पिछले 65 सालों में हिन्दुस्तान ने कोई तरक्की ही नहीं की। हमने पाताल से तेल भी निकाला और चाँद की सतह को भी छुआ। विपरीत परिस्थिति में भी हमारी अर्थव्यवस्था की मजबूती ने सारी दुनिया को चौंका दिया।

पर दिक्कत यह हुई कि हम ऐसी व्यवस्था नहीं कायम कर सके जो हमारी रोजमर्रा कि जिन्दगी को खुशहाल बना सके। जहाँ सुविधाओं का समान वितरण हो। वीआईपी बने बिना भी सबकुछ हमारे लिए आसानी से उपलब्ध हो। यह भरोसा कायम करने में विफल रहे कि जो है वो सब में ‘बराबरी’ से बँटेगा। व्यवस्था खुद सब तक पहुँचेगी।

चंद लोगों ने उपलब्ध संसाधनों को जीभरकर लूटा। इससे उपजा असंतोष ही अब फूटकर सतह पर आ रहा है। जितना इसको दबाने की कोशिश की जा रही है उतना ही ये नई-नई जगह से नए-नए रूप में फूट रहा है और इसका फूटना जरूरी भी है।

देश को इस संक्रमण काल से निकाल कर आधुनिक भारत गढ़ने के लिए जरूरी है कि परिवर्तनों कि ये आँधी और भी तेजी से बहे। लोगों में बदलाव कि उत्कट अभिलाषा होगी तो बदलाव जरूर आएगा।

इस बदलाव का स्वागत कीजिए, इस बदलाव में सहभागी बनिए। ये मौका चूक गए तो नया भारत गढ़ने का मौका हाथ से निकल जाएगा। दूर से तमाशा मत देखिए। आप जहाँ हैं वहीं परिवर्तन की शुरुआत कीजिए। इस अव्यवस्था से लड़िए। इसे अपने ऊपर हावी मत होने दीजिए। बाहें फैलाकर इस बदलाव को गले लगा लीजिए।

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