सोशल मीडिया:बोलती आवाजें...उभरती ताकत...चुभते सवाल

सोशल मीडिया को भस्मासुर बनने से बचाना होगा

जयदीप कर्णिक
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इस 1 जनवरी को इंटरनेट ने अपनी औपचारिक शुरुआत के 30 साल पूरे कर लिए। इन तीन दशकों में इस माध्यम ने मनुष्य जीवन को जितना गहरे से प्रभावित किया है, उतना किसी और माध्यम ने नहीं।

ख़ुद टिम बर्नर्स ली ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनका ईजाद किया हुआ ये वर्ल्ड वाइड वेब इस तरह के बड़े और व्यापक ‍त‍िलिस्मी मायाजाल की शक्ल ले लेगा। उन्होंने तो बस चंद कंप्यूटरों को आपस में जोड़ने का यत्न किया .... और सारी दुनिया ही इससे जुड़ गई। इंटरनेट एक ऐसा घोल बन गया जिससे सारी दुनिया चिपक गई। चिपकी है भी और नहीं भी। क्योंकि जो कुछ भी है वो आभासी है ... पर सच भी है। आभासी सच। इसी आभासी सच की बुनियाद पर सपनों की एक और दुनिया रची गई - सोशल नेटवर्किंग की दुनिया। ऑरकुट, ब्लॉगिंग और छोटे- मोटे यारी दोस्ती के तिनकों से तैयार ये नशेमन फेसबुक और ट्‍विटर के गारे-मिट्टी से कब इतना बड़ा हो गया, किसी को पता नहीं चला।

सोशल नेटवर्किंग को शुरुआत में इंटरनेट पर जवान हो रही नई पीढ़ी के नए शगल के रूप में ही लिया गया। इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। लेकिन जब धीरे-धीरे नई तकनीक और संप्रेषण के नए माध्यमों को लेकर जिज्ञासु बौद्धिक वर्ग ने इससे जुड़ना चालू किया तो सोशल नेटवर्किंग ने अचानक नई करवट ली। हर कोई इस मंच पर आकर अपनी बात कहने को उतावला हो गया। इस मंच की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि यहाँ जिसे जो मर्जी है वो कह सकता था। ये जनसंचार के परंपरागत संपादित माध्यमों से बिलकुल अलग था। काट-छाँट का कोई डर नहीं, अपनी रचना कूड़े में फैंके जाने का कोई ख़तरा नहीं। ... और सबसे बड़ी बात छप जाने का कभी ना ख़त्म होने वाला इंतजार भी नहीं।

सोशल नेटवर्किंग के इस मंच का सभी ने अपने-अपने तरीके से उपयोग किया। जो ख़राब लोग थे उन्होंने अपनी गंदगी को भी इस पर जी भर कर उंडेला। बाजार ने इसे अपने ग्राहक ढूंढने का नया जरिया बना लिया
इसीलिए सोशल नेटवर्किंग के इस मंच पर अचानक अभिव्यक्ति की बाढ़ सी आ गई। इस बाढ़ में अच्छा-बुरा सबकुछ शामिल था। लोग एक-दूसरे को ख़ुले आम गालियाँ भी दे रहे थे और अपनी सुंदर कविताओं और भावपूर्ण लेखों को भी अपनों तक पहुँचा कर गदगद हो रहे थे। सोशल नेटवर्किंग के इस मेल-जोल ने तमाम भौगोलिक सीमाओं को ध्वस्त कर दिया। स्कूल के बिछड़े दोस्त फेसबुक पर मिलने लगे और एक तरह से वहाँ 'वर्च्युअल क्लास रू म' ही बन गई। इंदौर में बैठा व्यक्ति कैलिफोर्निया में बैठे अपने मित्र के पल-पल के हाल से वाकिफ हो गया। लोग यह तक पोस्ट करने लगे कि वो इस वक्त क्या खा रहे हैं, कहाँ बैठे हैं, कौन-कौन उनके साथ है।

यंत्रवत भागती दुनिया जहाँ इंसान का सारा समय नौकरी और घर के बीच तालमेल और भागदौड़ में ही निकल जाता था, इंसान को इंसान से मिलने की फुर्सत ही नहीं है, उसे दुनिया से जुड़े रहने के एहसास को जिंदा रखने के लिए नया तरीका मिल गया। मोबाइल और एसएमएस तक सिमट चुका संवाद अचानक सोशल नेटवर्किंग के मंच पर खुल कर बिखर गया। लोग बिना मिले भी एक दूसरे से मिल सकते थे। बड़ी बात ये कि अपनी सहूलियत से। जरूरी नहीं है कि शाम 7 बजे ही कहीं पहुँचना है... रात 2 बजे भी आप पूरे दिन का और दोस्तों का हाल जान सकते हैं। जब मर्जी वहाँ से गायब हो सकते हैं, जब मर्जी प्रकट। अपने कमरे के अंधेरे कोने में बैठकर दुनिया पर नजर रख पाने और उससे जुड़े होने के एहसास, चाहे वो सच्चा हो या झूठा, ने इस मायावी दुनिया में 'दुनियादा र' होने का मीठा-मीठा भ्रम भर दिया।

सोशल नेटवर्किंग के इस मंच का सभी ने अपने-अपने तरीके से उपयोग किया। जो ख़राब लोग थे उन्होंने अपनी गंदगी को भी इस पर जी भर कर उंडेला। बाजार ने इसे अपने ग्राहक ढूंढने का नया जरिया बना लिया। जो अच्छे लोग हैं उन्होंने अच्छे लोगों और विचारों को जोड़ने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया।

अण्णा हजारे का पूरा आंदोलन इस सोशल मीडिया के इर्द-गिर्द घूमा। लोगों को ये भी समझ आया कि केवल अपने मोबाइल या कंप्यूटर से कमेंट करने से कुछ नहीं होगा, सड़कों पर उतरना होगा। और लोग उतरे भी। हाल की दिल्ली की बलात्कार वाली घटना में भी लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरे, मगर उनको सड़कों पर उतारने में भी सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई।

जहाँ एक ओर सोशल मीडिया के सकारात्मक पहलू और उनके परिणाम उत्साहित करते हैं वहीं इसका काला पक्ष भी बहुत डरावना है। निश्चित ही सोशल मीडिया ने परंपरागत मीडिया पर निर्भरता को कम किया है। लोगों की अभिव्यक्ति मुखर हुई है। बड़े-बड़े नेता-अभिनेताओं को भी अब यह डर नहीं है कि वो कुछ कहेंगे और पत्रकार कुछ और ही लिख देंगे। अब वो खुद ही लोगों से जुड़े हैं। पर एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का भी है जो अभिव्यक्ति की आजादी कि आड़ में उच्छृंखल भी हो गए हैं। अपनी पहचान छुपाकर कुछ भी कह सकने की आज़ादी का लोगों ने बेजा फायदा उठाया।

अपनी कुत्सित मानसिकता और दुष्प्रचार को फैलाने के लिए ये लोग सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर रहे हैं। बिना सामने आए कीचड़ उछालने और अपना उल्लू सीधा करने के लिए भी इसका जमकर उपयोग हो रहा है। इसी वजह से सोशल मीडिया के इस उफान को मर्यादा में बाँधने की कोशिशें भी तेज हो गई हैं। सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आईटी एक्ट) भी अचानक खूब चर्चा में आया। सन 2000 में बने इस कानून में 2008 में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। हालाँकि यह अफसोस कि ही बात है कि इतना महत्वपूर्ण कानून 23 और 24 दिसंबर 2008 को लोकसभा और राज्यसभा में बिना बहस के ही पारित हो गया। यह कानून 27 अक्टूबर 2009 से प्रभावशील भी हो गया है। इसकी धारा 66-ए को तो कोर्ट में चुनौती भी दी गई है। यह ही वो धारा है जिसका हवाला देकर मुंबई के पास पालघर कि दो लड़कियों को उनके फेसबुक कमेंट के लिए गिरफ्तार किया गया था।

अभिव्यक्ति के इस सुंदर मंच का नियमन और व्यवस्थित उपयोग बहुत आवश्यक है। नहीं तो यह एक ऐसा भस्मासुर साबित होगा जो इसके संपर्क में आने वाली हर चीज को खुद ही ध्वस्त करने लगेगा
इस पूरे मसले के दोनों ही पहलू महत्वपूर्ण हैं। जहाँ एक और अभिव्यक्ति की आजादी का भी बहुत जिम्मेदारी के साथ उपयोग जरूरी है वहीं सरकार अपने हित में आवाजें दबाने के लिए इस कानून का उपयोग करे ये भी गलत है।

बहरहाल, ये सही है कि 2012 के जाते-जाते सोशल मीडिया ने अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवाई है। साल 2013 सोशल मीडिया के लिए महत्वपूर्ण पड़ाव होगा। यूरोप और अमेरिका में तो सोशल मीडिया से जुड़े अपराध सरकार और पुलिस के लिए नया सिरदर्द बन गए हैं ।

इसीलिए अभिव्यक्ति के इस सुंदर मंच का नियमन और व्यवस्थित उपयोग बहुत आवश्यक है। नहीं तो यह एक ऐसा भस्मासुर साबित होगा जो इसके संपर्क में आने वाली हर चीज को खुद ही ध्वस्त करने लगेगा। आख़िर एक वक्त ऐसा भी आ सकता है कि हम ये चाहने लगें कि अपने सिर पर हाथ रखकर यह खुद ही खुद को भस्म कर ले, बजाय कि दूसरों को जलाने के। ....उम्मीद करें कि ऐसा वक्त ना आए। चंद लोगों के नापाक इरादे इस नए मीडिया को बर्बाद ना कर पाएँ। संपादित माध्यमों के ख़रीदे जा सकने वाले सरोकारों के बीच सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का पहरुआ बनकर सच को सामने लाता रहे और लोकतंत्र को मजबूत करता रहे।

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