क़लम पर मिटने वालों का, यही बाक़ी निशां होगा ...

जयदीप कर्णिक
जवाहरलाल राठौड़ जी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो चुका है... उनकी इच्छानुसार नेत्रदान किया गया और उनकी आँखों से अब छ: लोग दुनिया देख पाएँगे। जीवन भर लोगों की आँखें खोल देने वाली पत्रकारिता करने वाले जवाहर जी जाते-जाते भी किसी की दुनिया रोशन कर गए... ठीक उसी तरह जैसे ताज़िन्दगी आदिवासी और ग्रामीण अंचलों की बालिकाओं को पढ़ा-लिखा कर उनकी शादी तक का ज़िम्मा उठाते रहे....। तमाम व्यस्तताओं के बीच और बाद भी उनका ये काम निरंतर चलता रहा। बालिकाओं की शिक्षा को लेकर वो कितने चिंतित, जागरुक और प्रयत्नशील थे, उनके माध्यम से पढ़ी बालिकाएँ तो इसकी बानगी भर हैं। वो पत्रकार भी थे, समाजसेवी भी थे, पर्यावरणविद्‍ भी थे, कवि और गायक भी थे.... वो दरअसल एक योध्दा थे, एक एक्टिविस्ट, इसीलिए वो किसी भी भूमिका में हों और किसी भी मंच पर हों,  वो लड़ते रहते थे। ग़रीबों और शोषितों की लड़ाई .... नईदुनिया के पन्नों पर, अभ्यास मंडल के मंच से, सीईपीआरडी के माध्यम से, उनकी लड़ाई सतत जारी रहती थी। 
वो ख़ुद एक चलता-फिरता संदर्भ ग्रन्थ थे। सरकार के बजट और वित्तीय प्रावधानों के आँकड़े उन्हें ज़ुबानी याद थे। अधिकारियों  और मंत्री भी उनसे मिलने पूरी तैयारी से आते थे, डरते थे, सम्मान करते थे। उन्होंने अपनी मेहनत से घर पर बेहतरीन संदर्भ तैयार कर रखा था ...नईदुनिया का पूरा संदर्भ उनके लिए उपलब्ध होने के बाद भी...स्वाभिमानी भी थे और अक्ख़ड़ भी। वो सामने बैठे हों तो नेता, मंत्री सबको अपनी पत्रकार वार्ता समय पर ही शुरु करनी होती थी.... 
 
केंद्र सरकार के वित्त आयोग को  अगर मध्यप्रदेश सरकार प्रतिवेदन देना चाहती थी तो राठौड़ साहब की राय ली जाती थी... इंदौर के मास्टर प्लान से हरियाली ग़ायब होने पर जो प्रतिवेदन बना और याचिका लगी उसकी तैयारी में जवाहरलाल राठौड़ जी की अहम भूमिका थी.... बीमारी ने उनके शरीर की हदें बाँध दी थी... नियति के अनुसार वो महाप्रयाण भी कर गए... पर उनके कार्य, क़लम की धार, शब्दों का नाद, जीवट पत्रकारिता के लिए कायम किए गए आदर्श हमारे बीच रहेंगे। ये धरोहर है, जिसे सहेजा जाना चाहिए....ये अफसोस की बात है कि उनके ज्ञान और कर्म को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की ज़्यादा चिंता नहीं हो पाई। 
 
हाँ उनका दुर्लभ संदर्भ-संग्रह ज़रूर उन्होंने विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग को दान कर दिया। पर जैसा कि श्री शशीन्द्र जलधारी ने शोक सभा में कहा कि उसका लाभ पत्रकारिता की नई पौध कितना उठा पाएगी, ये अलग बहस का मुद्दा है। वो सब सौभाग्यशाली हैं, जिन्होंने जवाहलाल राठौड़ जी को पत्रकारिता करते देखा है। समाज के लिए लड़ते देखा है। इस लिहाज से मैं भी सौभाग्यशाली हूँ। 
 
एक किस्सा जो उन्होंने नईदुनिया की डेस्क पर ही मध्यप्रदेश विद्युत मंडल को लेकर एक तगड़ी ख़बर बनाने के बाद चाय पीते हुए सुनाया था। मैंने पुछा - दादा,  ये इतने आँकड़े कहाँ से लाते हो, पोल-पट्टी खोलने वाले? बोले, ज़िद होनी चाहिए, इच्छा होनी चाहिए, सब मिलता है। तुमको बताऊँ इंदौर के एक कलेक्टर मुझसे बहुत नाराज़ थे क्योंकि मैं लगातार उनके विभाग और कामों की पोल खोल रहा था। उनके दफ्तर में मेरे प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था। बाबुओं को सख़्त ताकीद थी कि मुझ तक कोई क़ागज़ ना पहुँचे। पर मैं फिर भी लिखता रहा... तुमको बताऊँ कैसे ....कलेक्टर साहब की डस्टबिन में फिंके क़ागज़ मुझ तक पहुँच जाएँ, ये जुगाड़ मैंने कर ली थी... बस उसी से ख़बर मिल जाती थी। 
 
ये तो बस एक उदाहरण भर है... वो जीवट, वो ज़िन्दादिली, वो आक्रोश अब कहाँ देखने को मिलता है? पत्रकार वार्ता के लिए वो रियाज़, वो तगड़ा होम वर्क... अभी तो शहर ये ही नहीं समझ पा रहा कि हमने क्या खो दिया है....तभी तो अंतिम संस्कार के लिए मुक्तिधाम पर आए लोग एक दूसरे कि आँखों में झाँक रहे थे.... फिर बगलें झाँक रहे थे... सवाल सबके मन में वो ही था.... टीस थी...ये क्या... जवाहर लाल जी के अंतिम संस्कार में इतने कम लोग... कुछ लोग तो ये सोचने पर भी मजबूर हुए कि क्या वो सही जगह पर आए हैं? 
 
...एक और सवाल जो तेजी से घूमने लगा.. वो ये कि राठौड़ जी तो स्वतंत्रता सेनानी थे... उनको राजकीय सम्मान मिलना चाहिए... कोई अधिकारी आया क्यों नहीं? कुछ पत्रकारों (ज़्यादा थे भी नहीं वहाँ) ने फ़ोन किया तो जवाब मिला कि हमारी सूची में तो राठौड़ जी का नाम नहीं है... !! क्या तो गुस्सा करते, क्या शोक मनाते....राठौड़ जी ने तो प्रेस कॉंफ्रेंस में भी किसी का ज़्यादा इंतज़ार किया नहीं... सो वो तो अपनी अंतिम यात्रा पर चल पड़े... 
 
शोक सभा के बाद किसी ने बताया कि दरअसल उनका नाम तो झाबुआ के स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में है... इसलिए यहाँ के प्रशासन की सूची में नहीं है... वाह रे प्रशासन और उसकी बाबूगिरी..... !! ... ख़ैर जिस तासीर के जवाहर लाल राठौड़ थे... वो जिस मिट्टी के बने थे... ये सारे सरकारी कर्मकांड से वो दूर ही रहे ये अच्छा हुआ.... बाकी संख्या और उपस्थिति पर तो क्या कहा जाए.... 
 
उनकी तो चिताओं से ही उठेंगे शब्द बनकर शोले,
क़लम पर मिटने वालों का यही बाक़ी निशां होगा
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