क्रांति... जो वोटिंग मशीन से निकली...

जयदीप कर्णिक
क्रांति ज़रूरी नहीं कि तहरीर चौक से ही आए.....क्रांति ज़रूरी नहीं कि ख़ून से लथपथ हो.... क्रांति ज़रूरी नहीं कि अपनी प्रचलित परिभाषा को ही पुष्ट करे....क्रांति जरूरी नहीं कि जले हुए मकानों और पत्थर पटी गलियों के निशान छोड़ जाए। क्रांति बंदूक की नली से नहीं, वोटिंग मशीन के बटन से भी निकल सकती है.... बशर्ते कि वो करोड़ों उम्मीदों को एक साथ झंकृत कर एक ही बटन दबाने पर मजबूर कर दे। 16 मई 2014 को हिंदुस्तान के लोकतंत्र की वोटिंग मशीनों से निकले परिणाम निश्चित ही क्रांति है... एक ऐसी क्रांति जो मौन होते हुए भी मुखर है। एक ऐसी क्रांति जिसने बिना कहे क्रांति की सारी अर्हताएं पूरी की हैं।
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ये क्रांति केवल इसलिए नहीं है कि एक राजनीतिक दल ने 10 साल से शासन कर रहे दूसरे राजनीतिक दल को पटखनी दे दी है। ये क्रांति इसलिए भी नहीं है कि भाजपा को अपने दम पर बहुमत मिल गया है। ये क्रांति इसलिए भी नहीं है कि कांग्रेस अपनी अब तक की सबसे बुरी स्थिति में पहुँच गई है। ये क्रांति इसलिए भी नहीं है कि देश को अब एक नया प्रधानमंत्री मिलने वाला है। ये क्रांति इसलिए भी नहीं है कि कोई जीत गया है और कोई हार गया है...।

ये क्रांति इसलिए है कि 20 करोड़ 29 लाख से भी ज़्यादा हिंदुस्तानियों ने एक साथ एक व्यक्ति को, एक सपने को, एक उम्मीद को, एक नए भारत की तस्वीर को, एक भावना को वोट दिया है। बदलाव की इस उत्कट आकांक्षा को, इस जनभावना को मोदी अपने पक्ष में कर पाए ये उनकी सफलता है। लेकिन ये भी सही है कि क्रांति की ये ज्वाला अचानक नहीं भड़की है। क्रांति के ये शोले पिछले कई सालों से धधकने की कोशिश कर रहे थे। बदलाव की वो चिंगारियाँ अपनी चमक बिखेर कर इसलिए अस्त हो रही थीं क्योंकि इनको आपस में जोड़कर क्रांति की मशाल बना पाने वाला क्रांति का अग्रदूत परिदृश्य पर नहीं था। कभी वैसा फूस नहीं था जो ज्वाला को प्रज्जवलित रख सके। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ हुए अन्ना के आंदोलन को यों ही इतना व्यापक जनसमर्थन नहीं मिल गया था। आंदोलन की कोख़ से उपजे अरविंद केजरीवाल यों ही दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुँच गए थे। उन्होंने बदलाव की तीलियों को जोड़कर आग जलाने की कोशिश तो की, पर ख़ुद ही उस माचिस को पानी में फेंक आए। फिर लोकसभा चुनाव में उन्हीं सीली तीलियों से आग जलाने की कोशिश करते रहे जो कि संभव नहीं था।

भारत की धरती में पड़े क्रांति के बीज को एक कुशल माली के रूप में खाद-पानी दिया नरेंद्र मोदी ने। वो समझ गए थे कि बीज है, और ये बड़ा वृक्ष भी बनेगा, मगर उसके लिए चहिए सही समय, उचित वातवरण, ठीक मात्रा में खाद-पानी और जिस मिट्टी में ये बीज पड़ा है उस भारत की मिट्टी में कठोर परिश्रम कर सकने की क्षमता। उन्हें पता था कि इस बीज को पनपने के लिए खाद-पानी के साथ सतत मिल सकने वाली स्वेद बूँदें भी चाहिए। देश में बदलाव की इस खदबदाहट और उस बदलाव को आवाज दे सकने वाले मसीहा की जरूरत को मोदी ने संघ प्रचारक के रूप में देशाटन के दौरान निश्चित ही भाँप लिया था। वो ये भी जानते थे की गुजरात के बगीचे में इसे सींचे बगैर वो आगे नहीं बढ़ पाएँगे। 2002 का पाला, माली के हुनर पर सवाल भी खड़े कर रहा था, ये चुनौती भी उन्हें झेलनी ही थी।

इस सबके बाद भी अगर मौसम की मार, थपेड़ों, चिलचिलाती धूप और कुछ शाखाओं के टूट जाने का जोखिम उठाते हुए भी इस बीज को अंकुरित कर वे धरती से बाहर ले आए हैं तो इसका श्रेय तो उन्हें दिया ही जाना चाहिए। इस बीज से कितना बड़ा, घना, छायादार और फलदार वृक्ष बनेगा इस पर तो देश-दुनिया की ही नहीं ख़ुद तवारीख़ की भी निगाह लगी हुई है और लगी रहेगी। तमाम बड़े लेखों और संपादकीय टिप्पणियों में इसी बात पर सवालिया निशान भी लगे हैं, लगने चाहिए, लगते रहेंगे। लोगों ने हर कदम का बहुत बारीक आकलन भी शुरू कर दिया है। लेकिन उसके पहले धरती से फूटे इस क्रांतिबीज को मुस्करा के न देखना, इसे सलाम न करना, इसकी तासीर को न समझना, इसकी ओर उम्मीद भरी नज़रों से न देखना इस बीज का और उन 20 करोड़ से ज़्यादा भारतीयों का अपमान होगा जिन्होंने इस क्रांति को जन्म दिया है।

मिस्र होस्नी मुबारक को हटाकर भी तड़प रहा है क्योंकि कई बार केवल क्रांति का हो जाना ही काफी नहीं है। अभी तो मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में ताजपोशी बाकी है। फिर भी जीत के तुरंत बाद जो संकेत उन्होंने दिए हैं उन पर वो अमल करने में कामयाब होते हैं तो निश्चित ही ये अंकुर धीरे-धीरे पुष्पित और पल्लवित भी होगा। अगर वो कहते हैं कि सरकार पूरे सवा सौ करोड़ भारतीयों की है तो निश्चित ही उन्हें ये ध्यान होगा कि देश के तिरंगे में तीन रंग हैं, केवल केसरिया नहीं और तीनों ही रंगों के साथ लहराने वाला तिरंगा ही भारत की शान है। उनके वडोदरा और अहमदाबाद के भाषणों में सबसे ज़्यादा आशा वही जगती है जहाँ वे देश में योगदान के नए तरीकों पर बात करते हैं। जब वो कहते हैं कि सड़क पर कचरा ना फेंकना और सही तरीके से गाड़ी चलाना भी देश के विकास में योगदान है तो निश्चित ही देश की नब्ज पर हाथ रखकर ऐसी बीमारी की ओर इशारा कर रहे हैं जिसका उपचार तो दूर ठीक से पता ही नहीं लगाया गया। अपने नागरिकता बोध को लेकर हम कितने बुरे हैं इसका ख़ुद हमें एहसास नहीं है। आज़ादी के बाद राष्ट्र-प्रेम के नए प्रतीक न गढ़ पाना हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है और तमाम समस्याओं की जड़ भी। अगर इस बीमारी को पहचानने के साथ ही वो इसका उपचार भी कर पाएँगे तो निश्चित ही वो कुशल चिकित्सक भी हैं। ये जरूर है कि इलाज के लिए पहले वो 60 महीने यानी 5 साल माँग रहे थे और अब वो कुशलता से 10 साल की बात करने लगे हैं।

क्रांति का ये बीज बीमार न हो और फल-फूल पाए उसके लिए जबर्दस्त कौशल और टाइमिंग चाहिए। अगर ऐसा होने पर बीज फूट पड़ा है तो उसके कोंपल फूटने का इंतज़ार तो करना ही होगा। आप ये भी तो सोचिए की इसमें क्रांति, की बदलाव की, बेहतरी की, तरक्की की हरियाली की और आसमान तक पहुँच जाने की प्रबलतम अभिलाषा रखने वाले उस बीज का क्या दोष? उसे तो जिसने खाद-पानी दिया और सींचा उसी की उंगली थामकर वो जमीन फोड़कर बाहर आने को बेताब हो गया। क्रांति की इस अतृप्त अभिलाषा को जो माली नहीं पढ़ पाए वो अगर बीज को ही दोष देंगे तो कैसे चलेगा? या पढ़ पाने के बाद भी जिन्हें ये नहीं सूझा की ये कैसे अंकुरित होगा तो बीज की क्या ग़लती?

हाँ, अगर इस बीज का पोषण सही नहीं हुआ होगा या इसमें डला ख़ाद अनैतिक और अमानक होगा, उसमें महत्वाकांक्षा के बजाए घमंड का पानी और कॉर्पोरेट का यूरिया डला होगा तो ये जल्द ही कुम्हला जाएगा, इसकी पत्तियाँ बीमार हो जाएँगी, ये ना छाया दे पाएगा ना फल। पर ये तो केवल आने वाला समय ही बता सकता है। और चूँकि ये स्वप्नबीज है, ये करोड़ों भारतवासियों की आकाँक्षाओं का प्रतीक है तो कामना तो इसके ख़ूब घने, फलदार और विशाल होने की ही होनी चाहिए। ऐसा नहीं भी हुआ तो फिर कोई क्रांति बीज इस धरती से अंकुरित होगा और देश के लिए वटवृक्ष बनेगा क्योंकि ये बीज सपनों की धरती में पलता है और सपने कभी मरते नहीं, उन्हें मरने देना भी नहीं चाहिए....क्योंकि सपनों के मरने से बुरा कुछ नहीं होता, इस स्वप्नबीज को पुन: सलाम करते हुए पाश की ये पंक्तियाँ -

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

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