ये सचमुच भारत की जीत बने...

जयदीप कर्णिक
संपादकीय शुरू करने से पहले दो वाकये याद आ रहे हैं-
पहला- मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले राहुल की कोर टीम के एक सदस्य राहुल की रैली के एक दिन पहले इंदौर आए थे। वो चुनिंदा पत्रकारों से माहौल का जायजा लेना चाह रहे थे। उन्होंने जो जाना सो तो ठीक लेकिन उन्होंने जो कहा वो अहम- "हमें लगता है कि राहुल गाँधी जब अपने कुर्ते की बाँह चढ़ाकर बात करते हैं तो लोग उसे पसंद करते हैं और ये उनका स्टाइल स्टेटमेंट है।"

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दूसरा- वेबदुनिया के दफ्तर में अधिकतर सुरक्षाकर्मी बिहार के हैं। जिस दिन नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी से अपनी नाराज़ी के चलते राजग से हाथ खींचे, उसी दिन मैंने इन सब बिहारी सुरक्षाकर्मियों के प्रमुख मंकेश से पूछा- क्यों मंकेश जी, क्या नीतीश कुमार ने ठीक किया? मंकेश ने कहा- नहीं साहब, बिलकुल ग़लत किया, आप देखना बुरी तरह पछताएँगे। उन्हें भाजपा के साथ ही रहना था। बिहार के लिए वो अपना काम करें, देश मोदी जी को चाहता है।

दोनों वाकयों का यहाँ जिक्र क्यों आया आप बेहतर समझ सकते हैं। कोर टीम में बैठे लोग किन हवा हवाई ख़यालों में जीते हैं और ज़मीन से जुड़े लोग कैसे समय की नब्ज़ पहचानते हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों के परिणाम केवल इस मायने में ही चौंका पाए कि कुछ राज्यों में केसरिया रंग आकलन से कहीं ज़्यादा चढ़ गया। बाकी तो सारा सस्पेंस एक्जिट पोल ने ख़त्म कर दिया था। सभी एक्जिट पोल राजग को पूर्ण बहुमत दिखा रहे थे। अंतर था तो भाजपा को मिलने वाली सीटों पर और राज्यवार सीटों के वितरण पर। मूल परिणामों ने ना केवल सारे संशय को दूर कर दिया बल्कि तीन दशक के लंबे अंतराल के बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत दिया है। गठबंधन की मजबूरी के कारण कड़े फैसले न ले पाने वाली सरकारों के बुरे दिन देखने के बाद ये सचमुच भारतीय राजनीति के अच्छे दिन हैं। संघीय ढाँचे की मजबूती और क्षेत्रीय दलों के महत्व के साथ ही ये भी ज़रूरी है कि अपनी सीटों को लेकर दल सरकार को ब्लैकमेल ना कर पाएँ।

कुल मिलाकर ये भारतीय लोकतंत्र की बड़ी कामयाबी है। जनता का सबक सिखाने का अपना तरीका है। चुनाव परिणामों ने अगर-मगर की तमाम गुंजाइश को ख़त्म कर दिया है। भ्रष्टाचार और घोटालों से आहत भारत कुशासन से मुक्ति चाहता था। युवा वर्ग अपने सपनों को पूरा करने के लिए मजबूत सरकार चाहता था। उसे चाहिए था एक ऐसा नेतृत्व जो मुद्दों पर मौन रहने की बजाय मुखर हो। अपनी बात कहे। जिम्मेदारी स्वीकारे। नरेंद्र मोदी ने इस चुनौती को स्वीकारा और खुलकर स्वीकारा। इसीलिए जनता ने उन्हें सिर-माथे पर बैठाया। पिछ्ले कई दशकों में ऐसा नेता नहीं हुआ है जो जनता के इतने करीब जाकर इतने आत्मविश्वास से उनकी आँख में आँख डालकर इस तरह उनसे बात कर पाया हो। जनता ने उनकी बातों पर कितना भरोसा किया ये बताने के लिए एनडीए को मिली 320 से अधिक सीटें काफी हैं। भाजपा का 272 से अधिक सीटें हासिल कर लेना भी इसी भरोसे की बदौलत हो पाया है।

निश्चित ही इस जीत के साथ मोदी का प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने का अश्वमेध पूरा होता है। वो सपना जिसे उन्होंने बहुत करीने से पाला। वो सपना जिसे पाने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। अब उन्हें उन भारतीयों के सपने पूरे करने हैं जिन्होंने उन पर भरोसा जताया है। भरोसे के इस हिमालय को अपने कंधों पर उठा पाना निश्चित ही आसान नहीं है। जीत के बाद जो भाव मुद्रा उन्होंने दिखाई है वो तो आश्वस्त करने वाली है। उन्होंने जश्न मनाने और बहुत ख़ुश होने की बजाय अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर शांत बने रहने का प्रयत्न किया है। जिस चुनौती का सामना वो अब करने वाले हैं उसके लिए शक्ति को संजोए रखना जरूरी भी है।

भारत के विविध सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को एक ऐसा प्रतिनिधि मिलने जा रहा है जो उसे अपनी पहचान के साथ स्वाभिमान से सिर उठाने का मौका दे सके। ऐसा भारत के उन सभी लोगों का मानना है जिन्होंने नरेंद्र मोदी के लिए वोट दिया। यह एक ऐसा बिरला अवसर था जब भाजपा और राजग के प्रत्याशी अपने चेहरे, व्यक्तित्व और कार्य के आधार पर नहीं लड़ रहे थे, वो सब पीछे था। आगे था तो मोदी का मुखौटा और जीत भी इसी मोदी नाम की हुई है। इन सभी विजेताओं को अब उस मुखौटे का मान रखने के साथ ही उस मुखौटे से जुड़ी अपेक्षाओं के बोझ को सीधे झेलना होगा। क्योंकि हर कोई मोदी से न मिल पाएगा न कह पाएगा। इसीलिए इन्हें मुखौटे उतारकर अपने काम में जुट जाना होगा।

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इस चुनाव ने कई संदेश बहुत स्पष्ट रूप से दिए हैं-
1. देश को अब लचर नेतृत्व और पॉलिसी पैरालिसिस की बजाय मजबूत नेतृत्व और त्वरित निर्णय वाली सरकार चाहिए।
2. जनता ने केवल जाति और क्षेत्र की राजनीति को नकार दिया है। ये तभी सिर उठाते हैं जब कोई मजबूत राष्ट्रीय विकल्प ना हो।
3. परिवर्तन के लिए लोग लंबे समय इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

समाप्त करने से पहले दो वाकये और-
पहला- दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान एक ऑटो वाले ने कहा था - साहब हमारे लिए जरूरी है कि यहाँ दिल्ली में मुख्यमंत्री केजरीवाल बनें और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनें। केजरीवाल ने तो निराश कर दिया उम्मीद है मोदी ऐसा नहीं करेंगे।

दूसरा- दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद 8 अप्रैल 2003 को नरेंद्र मोदी नईदुनिया कार्यालय आए थे। तब अभयजी 'छापने से पहले' शीर्षक से श्रृंखला चलाते थे। इसमें संपादकीय साथी अलग-अलग लोगों से रूबरू होते थे। तब नरेंद्र मोदी ने जो बातें कहीं थी और गुजरात के विकास को लेकर जो दृष्टि रखी थी वो 1-2 साल आगे की बात नहीं कर रही थी। चंद सवालों के जवाब में वो वृहत्तर भारत की बेहतरी के लिए चिंतित दिखे थे।

नरेंद्र मोदी ने जीत के बाद अपने पहले ट्वीट में इसे भारत की जीत बताया है। ये भारत की जीत बन पाएगी या नहीं इसके लिए तो उन्हें ही कड़ी मेहनत करनी होगी। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए पूर्ण बहुमत के साथ ही मजबूत विपक्ष की भी जरूरत होती है। कांग्रेस से ये उम्मीद करना बेकार है। जो आम आदमी पार्टी ऐसा करने का दावा कर रही थी, वो हाशिए पर भी जगह नहीं बना पा रही है। ऐसे में मीडिया को इस कमी को पूरा करने का दायित्व निभाना होगा। ख़ुद मोदी ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि देश की मजबूती के लिए मीडिया का मजबूत होना जरूरी है। हम उम्मीद करें कि अब अच्छे दिन आ रहे हैं....।

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