उन्होंने बताया कि तंगदिली और तंगदस्ती (हाथ तंग होना) भी फेरी की रवायत को कमजोर करने की बहुत बड़ी वजह है। पहले लोग फेरीवालों के रूप में गरीबों की खुले दिल से मदद करते थे लेकिन अब वह दरियादिली नहीं रही।
मौलाना की इस बात को फेरीवाले बाबा करीमुद्दीन की टिप्पणी भी सही साबित करती है। वह कहते हैं कि सेहरी के लिए लोगों को जगाने का सिलसिला पिछले पांच-छह साल में कम होने के साथ-साथ कुछ खास इलाकों तक सीमित हुआ है। इसका आर्थिक कारण भी है।
करीमुद्दीन कहते हैं कि रमजान में अब फेरीवाले लोग मेरठ, गाजियाबाद और दिल्ली जैसे सम्पन्न शहरों में जाने को तरजीह देते हैं। इससे उन्हें ईद में अच्छी- खासी बख्शीश मिलती है, जो अब छोटे शहरों और गांवों में मुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा कि सचाई यह है कि अब फेरी की परंपरा सिर्फ रस्मी रूप तक सीमित रह गई है। लोग अब सेहरी के लिए उठने के वास्ते अलार्म घड़ी का इस्तेमाल करते हैं और अब तो मोबाइल फोन के रूप में अलार्म हर हाथ में पहुंच चुका है लेकिन यह रमजान की बरकत और अल्लाह का करम ही है कि सेहरी के लिए जगाने की रवायत सीमित ही सही लेकिन अभी जिंदा है।
मौलाना फरंगी महली फेरी की परंपरा के कमजोर पड़ने को समाजी लिहाज से गहरी फिक्र का सबब भी मानते हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम कौम एकजुटता और परस्पर हमदर्दी की बुनियाद पर फलीफूली है, अगर ये चीजें खत्म होंगी तो वह अपना नूर खो देगी। फेरी एकजुटता, सहिष्णुता और हमदर्दी से सींची गई रवायत है और इसका कमजोर होना मुस्लिम कौम के कमजोर होने की निशानी है।
मौलाना ने बताया कि पुराने जमाने में सम्पन्न लोग कमजोर तबके के लोगों की अच्छे अंदाज से खिदमत करते थे और फेरी के बदले बख्शीश भी इसी का हिस्सा हुआ करती थी। अमीर लोग इन फेरी वालों के त्योहार की जरूरतें पूरी कर देते थे मगर अब वह फिक्र धीरे-धीरे गायब हो रही है।
उन्होंने बताया कि फेरीवाले लोग मजहबी लिहाज से खुशी और सवाब के लिए भी यह काम करते हैं। फेरी एक सामाजिक बंधन है। फेरी के जरिए न सिर्फ लोगों को जगाने का काम किया जाता था बल्कि इसके जरिए लोग एक-दूसरे की खैर-खबर भी रखते थे, जो एक मजबूत समाज के लिए बहुत जरूरी है। (भाषा)