डबल धमाल : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
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निर्माता : अशोक ठाकेरिया, इंद्र कुमार
निर्देशक : इंद्र कुमार
संगीत : आनंद राज आनंद
कलाकार : संजय दत्त, रितेश देशमुख, अरशद वारसी, मल्लिका शेरावत, कंगना, जावेद जाफरी, आशीष चौधरी, सतीश कौशिक
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 20 मिनट * 16 रील
रेटिंग : 2/5

फिल्म के नाम में ही डबल जोड़ लेने से सब कुछ डबल नहीं हो जाता है, इसकी मिसाल है ‘डबल धमाल’। यह सिंगल ‘धमाल’ जैसा मजा नहीं देती है। ऊँटपटाँग, मूर्खतापूर्ण हरकतें ‘धमाल’ में भी थी, लेकिन उनको देख हँसी आती थी।

‘डबल धमाल’ में भी ऐसी हरकतें हैं, लेकिन यहाँ ज्यादातर वक्त हँसने के बजाय चुपचाप बैठे रहने में गुजर जाता है। कलाकार ‍चीखते हैं, चिल्लाते हैं, लेकिन उनकी हँसाने की कोशिश साफ नजर आती हैं।

निर्देशक इंद्रकुमार की हास्य फिल्मों के प्लस पाइंट हैं वन लाइनर, चुटकुलेनुमा दृश्य, सिचुएशनल कॉमेडी। कहानी से ज्यादा उनका फोकस हास्य दृश्य गढ़ने में रहता है, लेकिन ‘डबल धमाल’ में न केवल कहानी कमजोर है बल्कि इंद्रकुमार अपने प्लस पाइंट्स का भी ठीक से उपयोग नहीं कर पाए। लिहाजा बीच-बीच में रफ पैचेस आते रहते हैं।

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फिल्म वहाँ से शुरू होती है जहाँ धमाल खत्म हुई थी। रॉय, मानव, आदि और बोमन के पास पैसा नहीं है। उनका दु:ख तब और बढ़ जाता है जब वे कबीर को देखते हैं। कबीर न केवल मालामाल है बल्कि कामिनी जैसी खूबसूरत गर्लफ्रेंड भी उसके पास है।

कबीर के पास जाकर चारों उसके पार्टनर बनने की कोशिश करते हैं। जब नाकाम रहते हैं तो उसे ब्लैकमेलिंग करते हैं, षड्यंत्र रचते हैं, लेकिन कबीर, उसकी बहन किया और कामिनी भी बेहद होशियार रहते हैं। उनकी हर चाल का जवाब उनके पास रहता है। एक-दूसरे पर भारी कौन साबित होता है, यह कॉमेडी के साथ फिल्म में दिखाने की कोशिश की गई है।

धमाल का सीक्वल होना ‘डबल धमाल’ के लिए माइनस पाइंट साबित हुआ है। ‘डबल धमाल’ कुछ कमजोरियों के बावजूद थोड़ा-बहुत मनोरंजन करती है, लेकिन न चाहते हुए कि दोनों फिल्मों में तुलना होती है और पलड़ा धमाल का भारी नजर आता है। दरअसल इस फिल्म के स्क्रीनप्ले में वो दम नहीं है कि छोटी-सी कहानी को लंबा खींचने के बावजूद दर्शकों को बाँधकर रखा जा सके।

फिल्म में कुछ बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन इनका ठीक से उपयोग नहीं किया जाना निर्देशक की नाकामी को दर्शाता है। रितेश देशमुख, जो हास्य भूमिका बड़ी सहजता के साथ निभाते हैं, से ज्यादातर समय मिमिक्री करवाई गई है।

अरशद वारसी और जावेद जाफरी ने जरूर अपनी तरफ से कुछ पेश करने की कोशिश की है। आशीष चौधरी तभी अच्छे लगते हैं जब वे चिंपाजी बनते हैं या महिला का रूप धारण करते हैं।

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संजय दत्त की जो इमेज है उसके अनुरूप भूमिका नहीं लिखी गई। कंगना और मल्लिका को ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया है। अपने सेक्सी फिगर के बावजूद ‘जलेबी बाई’ बनी मल्लिका, शीला या मुन्नी जैसा जादू नहीं जगा पाई।

संवाद सुनकर हमेशा हँसी आए ये जरूरी नहीं है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर नजर आती है। गानों का उपयोग दर्शक ‘ब्रेक’ लेने के लिए करते हैं।

कुल मिलाकर ‘डबल धमाल’, ‘धमाल’ की आधी है। बहुत सारा फाल्तू समय हो तो इसे देखा जा सकता है।

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