बस, हमारे आंगन में कचरा न रहे! (Not in my backyard syndrome)
अक्सर मांएं अपने बच्चों का लाड़ मल्हार करते हुए कहती हैं-आखि़र बेटा तो अपना है, इसके नखरे न उठाउं, यह कैसे हो सकता है! मांएं उनकी सेहत के लिए सेहतमंद खाना बनाती हैं, उन्हें उनके मनपसंद साफ़-सुथरे कपड़े पहनाती हैं, वे स्कूल में, स्पोर्टस् में अव्वल आएं, इसका भी पूरा ख़्याल रखती हैं पर यही बच्चे जब बड़े हो जाते है तो एक मां को संभालने के लिए अपनी अपनी पारी बांध लेते हैं। दो बेटे हों या चार, मां अपने बेटों के लिए एक बोझिल ज़िम्मेदारी बन जाती हैं। कुछ बेटे तो इंतज़ार करते हैं कि कब ज़िम्मेदारी का यह बोझ दूसरे तक स्थानांतरित हो।
यही स्थिति पृथ्वी, हमारी जन्मदात्री धरती के साथ है। धरती ने असंख्य प्राणियों का बोझ सम्भाल रखा है। यह धरती-मां है हमारी! पर हममें से कितने हैं जो वाकई इस धरती के पर्यावरण के प्रति जागरुक हैं? उनके लिए न सिर्फ़ सोचते हैं बल्कि उस सोच को क्रिया में बदलते भी हैं। ऐसे लोगों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। बाकी तो पूरी भीड़ है ही-जो अच्छी तरह पैरों तले पृथ्वी को रौंद रही है, जिस ज़मीन पर खड़ी है, उसके बारे में सोचने के लिए उसके पास एक मिनट का वक्त नहीं!
मैं अपने परिचित, पड़ोसियों को देखती हूं। ज़्यादातर लोग दूध, दही और छाछ की आधा लिटर या एक लिटर की थैलियां रोज़ खरीदते और इस्तेमाल करते हैं। इन थैलियों को ऐसे प्लास्टिक में पैक किया जाता है जो आसानी से रीसायकल हो सकती हैं। लेकिन ऐसा कई बार हुआ है जब मैंने उन्हें इन प्लास्टिक की थैली को छोटा सा तिरछा कोना कैंची से काटकर किसी पतीले या गिलास में दूध या छाछ उड़ेलते और उसे उसी तरह मोड़ कर घर के कचरे के डिब्बे में फेंकते देखा है। उसके अंदर चिपका हुआ दूध या दही अगले ही दिन भीषण बदबू पैदा करता है और और उसे जल्द से जल्द अपनी रसोई के कचरे के डिब्बे से बाहर ले जाने के लिए रख दिया जाता है।
सभी घरों से इकट्ठा किया वह गंधाता हुआ कचरा सोसायटी के कचराघर में जमा कर दिया जाता है और अगले दिन महानगर पालिका की कचरागाड़ी आकर उसे ले जाती है। इस प्रवृत्ति का अंग्रेज़ी में नामकरण किया गया है - Not in my backyard syndrome/नॉट इन माय बैकयार्ड सिन्ड्रोम यानी बस, हमारे आंगन में कचरा न रहे। बेशक वह पूरी प्रकृति को, पूरे पर्यावरण को प्रदूषित करता रहे, हमारा उससे सरोकार अपनी रसोई से बाहर निकालते ही समाप्त हो जाता है।
मैंने अपनी पड़ोसन मित्र को दूध की थैली को एक लाइन से लंबा काटकर पूरा दूध पतीले में ढालकर उसे प्लास्टिक को पानी से खंगालकर रसोई की टाइल्स पर बाकायदा चिपकाकर दिखाया। आधे दिन में वह पूरा सूख जाता है और फिर चाहे चार-छह महीने आप ऐसे पैकेट को जमा करते रहें, वे घर में दुर्गंध नहीं फैलाते। मुंबई में कुछ महिलाओं ने हर घर हरा घर और क्लीन मुंबई फाउंडेशन ने मिलकर यह प्लास्टिक इकट्ठा करने का अभियान शुरू किया है और कई परिवारों ने इन्हें सहयोग भी दिया है।
लेकिन ज्यादातर लोग बेहद आत्मकेंद्रित होते हैं। वे अपने से इतर कभी कुछ सोचते ही नहीं। एक महीने बाद भी जब मैं अपनी पड़ोसन के पास पहुंची तो देखा कि उन्होंने दूध की थैली को एक कोने से ऐसे दबोच कर पकड़ा जैसे कोई मुर्गे की गर्दन पकड़ता है और उसके कोने को कैंची से काटकर फेंक दिया और दूध की थैली फिर बिना धोए कचरे में डाल दी।
मैंने उन्हें याद दिलाया तो इस बार उन्होंने काफ़ी खीझकर कहा-"अब यही एक काम तो नहीं है न ! और एक छोटा सा कोना ही तो कतरा है, उतने से क्या फ़र्क पड़ने वाला है?" वे नहीं जानतीं कि करोड़ों लोग जो एक थैली का यह कोना कुतरते हैं, वह कोना कचरे के साथ डिजॉल्व नहीं होता, पांच सौ साल तक नष्ट नहीं होता। लेकिन यह उनके सरोकार का हिस्सा है ही नहीं। वे अपने से आगे सोचते ही नहीं जबकि सिर्फ़ सही जगह सही तरीके से अपने घर का फिजूल का सामान और कचरा पहुंचाने पर आराम से रीसायकल कर उससे कई खूबसूरत उपयोगी चीज़ें बनाई जा सकती हैं।
भारत की अधिकांश जनता पर्यावरण के मसलों से इतनी ही अनजान है। हाल ही में मैं एक छोटे शहर से लौटी हूं। हर पांच मिनट की दूरी पर सड़क के किनारे आपको कूड़े कचरे का बजबजाता ढेर मिल जाएगा जिसमें केले, संतरे और आम के छिलकों के साथ वेफ़र्स, चॉकलेट और नमकीन के ढेरों प्लास्टिक रैपर्स पड़े होंगे। दस या पांच रुपए के वेफ़र्स में चिप्स की लागत दो तीन रूपए और उतनी ही कीमत उसकी चिकने प्लास्टिक पैकेजिंग की ! ये पैकेट खाली होने के बाद सड़कों के किनारे कचरे को दुगूना चौगुना सौ गुना करते रहते हैं जिन्हें भूखे जानवर खा खाकर खौफ़नाक मौत का शिकार होते हैं।
बारिश का मौसम आते ही सड़क के किनारे प्लास्टिक का यह कचरा बह-बह कर नालियों को जाम करता है और गंदगी और बीमारियां फैलाता है। कचरा इकट्ठा करने वाली गाड़ियां भी हमारे घर से कचरा उठाकर शहर से दूर खाली जगहों पर फेंक आती है जहाँ कचरे के आसमान को छूते हुए ढूह हैं और मीलों तक फैली दुर्गन्ध।
कचरे के ऐसे ढूहों से विषैले रसायन हवा में फैलते हैं और संक्रामक रोगों को जन्म देते हैं पर भारतीय जनता का महामंत्र एक ही है - "बस, हमारे आंगन में कचरा न रहे।" बाहर चाहे जो होता रहे क्यों कि हमें न उस धरती की परवाह है जिस पर हम सांस ले रहे हैं, न उस बढ़ते तापमान की चिंता है जिसे हमने अपने घर में निरंतर ठंडी हवा फेंकने वाले एयरकंडीशनर लगा लगा कर नियंत्रण से बाहर कर दिया है।
ग्लोबल वॉर्मिंग को हमने बहुत सहजता से प्रकृति के अनिवार्य बदलाव की तरह स्वीकार कर लिया है। उसमें हमारी लाइफ़स्टाइल का कितना योगदान है, इसे मानने को हम तैयार ही नहीं। बाहर 45-50 डिग्री सेल्सियस की झुलसती ग़र्मी में गरीब आदमी मरता रहे, हम अपने घर के भीतर एअरकंडीशनर चलाकर इत्मीनान से सो सकते हैं और यह जानने की ज़हमत भी नहीं उठाते कि ए सी से अपने घर का ताप नियंत्रित कर धरती को कितने बड़े संकट में धकेल रहे हैं।
कुछ साल पहले मैं शिकागो गई थी। वहां एक बहुमंजिला इमारत में बिटिया का फ्लैट था जहां कचरा फेंकने और ले जाने की अलग सीढ़ियां और अलग सर्विस लिफ्ट थी। हर फ्लोर पर बाक़ायदा सी सी टी वी कैमरे लगे थे। अगर किसी ने भी प्लास्टिक बिना धोए फेंका या गीला और सूखा कचरा एक ही कचरेदान में डाल दिया तो वह कैमरे में क़ैद हो जाता था और तगड़ा जुर्माना भुगतना पड़ता था इसलिए दूध, दही, किसी तरल पदार्थ के लिए इस्तेमाल किया गया प्लास्टिक बिना धोए सुखाए फेंक नहीं सकते।
अब आप भारत के किसी भी शहर के किसी भी मुहल्ले में देख लें। यहां आपको इडली-डोसा का, सांभर-चटनी का पैकेट, चाय, गुलाब जामुन या समोसे की मीठी खट्टी चटनी या कोई भी खाद्य पदार्थ से अंटा-गंधाता प्लास्टिक, बिना धुले, बाकी के सूखे गीले कचरे में सना मिल जाएगा, उसके बाद चाहे वह पर्यावरण का सत्यानाश करता रहे, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं।
मैंने और मेरी कई मित्रों ने कई सालों से अपनी रसोई में फल सब्जियों के छिलके, गुठलियां का कचरा बाहर फेंकना बंद कर दिया है और घर में कॉम्पोस्ट (ऑर्गेनिक खाद) बनाना शुरु कर दिया है! अपनी बाथरूम डक्ट जहां रोशनदानों पर लगी जालियों से हवा और सूरज की रोशनी भी आती है, मैंने दो बड़े गमले रखे हैं! दो किलो खाद बाजार से खरीदी है। गमले के तल में पहले दो इंच खाद फैला दी है फिर रोज का फल सब्जियों के छिलके का ढेर एक इंच भर फैला देती हूं। उसे फिर से एक इंच खाद से ढंक देती हूं।
एक गमला भर जाने पर दूसरे गमले में यही प्रक्रिया शुरु करती हूं। एक इंच कचरा, एक इंच खाद। महीने भर में ये छिलके सब्जियों का लेफ्ट ओवर उस बेशकीमती खाद में बदल जाता है जो आप सौ से दो सौ रुपये किलो तक में बाजार से खरीदते हैं। इसके बाद यही खाद अपनी बालकनी के गमलों में इस्तेमाल की जा सकती है। यह कंपोस्ट बड़े स्तर पर कई रिहायशी सोसायटियों में भी तैयार किया जा सकता है।
एक मित्र पिछले पंद्रह सालों से घर में कचरे से कम्पोस्ट बना रही हैं! उसके घर में कुछ खुशनुमा अचरज अक्सर दिख जाते हैं! गमलों में बिना बीज डाले हरी मिर्च, नींबू, करेले, भिंडी, बैंगन और टमाटर के पेड़ अपने आप उग आते हैं। टमाटर का बचा खुचा हिस्सा और कटी हुई हरी मिर्च हम कचरे में डालते ही हैं, यह उन बीजों का ही कमाल है। इसे कचरा कहते हुए संकोच होता है! यह कचरा नहीं, संपत्ति है! हम घर में ही वेस्ट से वेल्थ (waste to wealth) बना सकते हैं फिर इसे रोज प्लास्टिक के साथ मिलाकर पूरे वातावरण को प्रदूषित करना कितना बड़ा अपराध है जिसकी गंभीरता को हम समझ ही नहीं पा रहे!
घर में कई बार कांच के ग्लास, फूलदान, प्लेटें टूट जाती हैं। इन टूटे कांच के टुकड़ों का हम क्या करते हैं? उन्हें भी कचरे में डाल देते हैं जिसमें से प्लास्टिक अलग करते हुए गरीब बच्चों और औरतों के हाथ कट जाते हैं। यही हाल घर के ई वेस्ट का है। सभी परिवारों में यंत्रचालित उपकरणों का प्रयोग बढ़ गया है। मोबाइल फ़ोन आए दिन खराब होते रहते हैं। फ़्यूज़ हो गए बल्ब और घड़ी और रिमोट की खाली हो गई बैटरी और सेल आखिर हम कहां फेंकते हैं?
होना यह चाहिए कि सारे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को एकसाथ रखकर किसी ई वेस्ट मैनेजमेंट कंपनी को दे दिया जाए। पर इतने दिन कौन इंतज़ार करे! हम बल्ब, बैटरी, मोबाइल, थर्मामीटर सबको कचरे में फ़ेंक देते हैं। कारण वहीं चिरंतन है-"बस, आखिर मेरे आंगन में कचरा न रहे।" उसे जल्दी से जल्दी बाहर फेंको क्योंकि बाहर से हमें कोई सरोकार नहीं चाहे वह जहरीले रसायन से पर्यावरण को प्रदूषित करता रहे !
जिस दिन हम अपने घर की ज़िम्मेदारी सरकार या महानगरपालिका के स्वच्छता अभियान को न सौंपकर अपनी रसोई के बचे हुए अवशिष्ट की गंध की ज़िम्मेदारी खुद ले लेंगे, हमारे आसपास का वातावरण सुरक्षित और स्वस्थ होता दिखाई देगा।
जैसे यह जन्म हमें एक ही बार मिला है, वैसे ही धरती भी हमें एक ही बार मिली है। इस पर आप क़हर ढाएंगे तो धरती दुगूना कहर ढाएगी। उसकी सहनशक्ति की परीक्षा न लें। बाढ़ आएगी। सूखा पड़ेगा। भूस्खलन होगा। चट्टानें दरकेंगी। एक बार ठिठककर, सोचकर देखें - क्या हम अपनी प्यारी धरती के साथ यही सुलूक करना चाहते हैं?
किसी ने कहा है-यह धरती हमारे पूर्वजों की विरासत नहीं, हमारे बच्चों का कर्ज़ है हमपर। इसे बच्चों को खूबसूरत बनाकर उपहार में दें, बदसूरत बनाकर नहीं।