मां वसुंधरा की हरी-भरी गोद में ही हम खुश रह सकते हैं...

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- प्रो. नंदकिशोर मालानी


 
पर्यावरण शुद्धता के मामले में हमारे पूर्वज हमसे बहुत ज्यादा भाग्यशाली थे। आज हमें शुद्ध मिट्टी, जल, वायु और गहरी नींद नसीब नहीं है। चाहे हमारे बाजार हजारों जरूरी और गैर-जरूरी चीजों से पटे क्यों न पड़े हैं।
 
दिन-पर-दिन पर्यावरण प्रदूषण के पैर पसरते जा रहे हैं। हमारे शहरों की चमक-दमक जिस तेज गति से बढ़ी है, जहरीले कचरे के ढेर भी उससे ज्यादा गति से ऊंचे होते जा रहे हैं। ओजोन गैस की परत में गहरे सूराख होने लगे हैं जिससे सर्वपोषक सूर्य ताप भी कैंसर का कारण बनने लगा है।
 
हमारी जलवायु तेज से गर्म होती जा रही है। हिमखंडों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और उसके किनारे बसे नगरों को भीषण खतरों का सामना करना पड़ेगा। धरती मां की प्राकृतिक सुषमा घटती जा रही है।
 
भूमिगत जल का स्तर पाताल के नीचे चला गया है। हमारे खाद्य पदार्थ विषाक्त बनते जा रहे हैं। पेयजल का संकट सुरसा के सिर की तरह बढ़ता जा रहा है। औद्योगिक कचरे, रासायनिक स्रावों और मानव मल-मूत्र ने गंगा जैसी ‍पवित्र ‍नदियों को गंदगी से पाट दिया है। 
 
वनस्पति और जीव-जंतुओं की हजारों जातियां लुप्त हो गई हैं। जैविक ‍वैविध्य घटता जा रहा है। आसमान में पक्षीगण कितने कम दिखाई देते हैं। हवा में उड़ते प्रदूषकों ने अपने मूल स्थान से सैकड़ों किलोमीटर दूर के जन-जीवन को दुष्प्रभावित किया है। ताप, शोर, दुर्गंध आदि का साम्राज्य सभी दूर फैल गया है।
 
चांद पर विचरण और मंगल ग्रह में जीवन की खोज करने वाले मनुष्य ने क्या सचमुच यह ठान लिया है कि वह इस इस प्यारी धरती को रहने योग्य नहीं रहने देगा? अब तो अंतरिक्ष भी उसके कचरे से कांपने लगा है।
 
 

 


सन् 1972 में स्टॉकहोम में पहला अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन हुआ था। तब से पृथ्‍वी अपनी कीली पर 15 हजार से भी ज्यादा बार घूम चुकी है। 'मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की' वाली कहावत चर‍ितार्थ हो रही है।
 
उस समय प्रस्तुत रिपोर्ट हमारे रोंगटे खड़े कर देती है। विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की खानापूर्ति करते हुए हम अपनी नई-नई मूर्खताओं से जले पर नमक नहीं, एसिड छिड़कने का कार्य करते जा रहे हैं। अब तो अथाह इलेक्ट्रॉनिक कचरा एक और नया संकट बन गया है।
 
इस तथाकथित प्रगति की दौड़ में भूटान जैसे अपवाद छोड़ दिए जाएं तो सभी राष्ट्र शामिल हैं। आपाधापी से पूर्ण हमारी इस विकृत जीवनशैली ने मधुमेह, हृदयरोग, कैंसर, मोटापा, उच्च रक्तचाप जैसे भयानक रोगों को महामारी का रूप दे दिया है। हमारे वस्त्र, वाहन और जूते चमकीले हैं, लेकिन चेहरे नि:स्तेज होते जा रहे हैं। हर कोई तनावग्रस्तता का शिकार बनता जा रहा है। धैर्य कम हो रहा है। अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्तियां सिर वृद्धि पर हैं। सभी लोग जल्दी में हैं। विलुपता के बीच विलाप कर रहे हैं।
 
 

क्या घड़ी की सुई को उल्टी तरफ मोड़ दें?


 
विकास मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। उस दिशा में कदम बढ़ाते रहना हमारा फर्ज है। खुशहाली, सफलता, समृद्धि और सुख ऐसे मानवीय लक्ष्य हैं जिन पर कोई विवाद नहीं हो सकता है।
 
हम विज्ञान के आव‍िष्कारों को समुद्र में नहीं फेंक सकते। आधुनिक टेक्नोलॉजी ने मानव जाति की सेवा और सहायता भी की है। उसने मनुष्य को कठोर परिश्रम की विवशता से छुटकारा दिलाया है। गंदे कार्य मशीनें खुद कर लेती हैं।
 
खेती और उद्योगों में उन्नति हुई है। रोग, अज्ञान और अभाव के विरुद्ध संघर्ष में तकनीकी प्रगति का योगदान है। उसने चिकित्सा, शिक्षा, परिवहन, संचार, मनोरंजन आदि की वे सुविधाएं मनुष्य के हाथों में भी सौंप दी हैं जिनकी कल्पना पहले चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं कर सकते थे।
 
टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल ने दुनिया बदल दी है। इनसे पूर्णत: छुटकारा संभव भी नहीं है और उचित भी नहीं। आज के मनुष्य के सामने बहुत बड़ी उलझन है कि सुविधाओं के बीच वह सुखी नहीं है। बिस्तर बहुत सुहावने हैं लेकिन नींद गायब है। परंतु विलासी जीवनशैली से जुड़ी व्याधियों की आंधी आई हुई है। क्या हम फिर से पुराने युग में लौट जाएं। क्या वैज्ञानिक प्रगति की घड़ी की सुई को पीछे की तरफ मोड़ना संभव और उचित होगा? हम किस ओर, कितना जाएं, ऐसी वैचारिक उलझनों से घिरे हुए हैं। 
 
 

विकास का हरा-भरा रास्ता असंभव नहीं



 
जब तलवार बनाई गई तो सामान्य दिनों में उसे सुरक्षित रखने के लिए म्यान की रचना भी ‍की गई। तेल से प्रकाश पैदा ‍किया गया तो चारों तरफ सुरक्षा के घेरे से युक्त दीपक बनाया गया ताकि अपने घर को आग से नुकसान न हो सके।
 
हम ऐसा क्या करें कि वैज्ञानिक प्रगति आगे बढ़ती रहे और मां प्रकृति हमसे रूठे नहीं। क्या तकनीकी उन्नति और प्रकृति की प्रसन्नता साथ-साथ नहीं रह सकती है?
 
आजकल हरी-भरी अभिवृद्धि (Green Growth) की जो नई विचारधारा अंकुरित हो रही है, उसे अमली जामा पहनाने के लिए जो जीननसूत्र जरूरी है, उनकी संक्षिप्त चर्चा इस प्रकार है।
 
 

मां प्रकृति के प्रति सही दृष्टिकोण


 
यहां एक आधारभूत बात पर थोड़ा-सा विचार करें। प्रकृति, विज्ञान और मनुष्य के संबंधों को लेकर पश्चिमी और भारतीय चिंतन धाराओं में एक बुनियादी फर्क है। 
 
पश्चिम का यह विचार रहा है कि प्रत्येक ‍जीवधारी और अजीवधारी पर मनुष्य का एकछत्र अधिकार है। उसका मनमाना शोषण करके मनुष्य को अपने जीवन स्तर को सुधारना चाहिए। प्रकृति की जो शक्तियां और तत्व इस मार्ग में बाधा बने, उन्हें कुचलकर मनुष्य को अपनी प्रगति की यात्रा जारी रखनी चाहिए। विज्ञान का उद्देश्य 'प्रकृति पर मनुष्य की विजय' है।
 
वातावरण असंतुलन के लिए ऐसा सोच बड़ी हद तक ‍जिम्मेदार है। भारत की परंपरागत विचार प्रणाली इसके ठीक विपरीत है। अब सारी दुनिया इसकी महत्ता को मानने लगी है। उस पर चलने से ही वर्तमान के अनेक संकटों से मुक्ति मिल सकती है।
 
हमारे देश में अद्वैत का विचार बहुत प्रबल रहा है। जिसका आशय है सभी दूर एक ही तत्व विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ है। वस्तुत: दूसरा कोई है ही नहीं। आज का विज्ञान (Theory of Everything) और (God Partical) के माध्यम से इसी ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। सैकड़ों वर्ष पहले हमारे यहां हितोपदेश में कहा गया है- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित:' अर्थात जो अपने समान ही सभी प्राणियों और पदार्थों को देखता है वही ज्ञानी और समझदार है। इस सोच पर आधारित जीवनशैली, उपभोग और उत्पादन प्रणाली प्रकृति का शोषण जैसा कुमार्ग अपना ही नहीं सकती है। संसार एक बाजार नहीं, बल्कि परिवार है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की बात हजारों वर्ष पूर्व घोषित की गई थी। 
 
 

लालच पर लगाम


 
आधुनिक पर्यावरण चिंतकों ने भी अंग्रेजी अक्षर 'R' से शुरू होने वाले 3 शब्दों को बड़ा महत्व प्रदान किया है।
 
(1) Reduce
(2) Reuse
(3) Recycle
 
अर्थात सादगी से रहो एवं उपभोग कम करो। चीजों को फेंको नहीं, बारंबार पुन: उपयोग करो।
 
उपयोग में लाई जा चुकी वस्तुओं का भी पुनर्निर्माण करो और उनको काम में लो। ये तीनों बातें हमारी परंपरागत जीवनशैली में रची-बसी रही हैं। जिसको हम पिछले दिनों भूलने लगे थे। इस सूची में पर्यावरण हितैषी जीवनशैली की दृष्टि से तीन और शब्दों को हम जोड़ना चाहते हैं, जो 'R' से ही प्रारंभ होते हैं। 
 
1) Respect
(2) Repair
(3) Redistribute
 
इनका आशय स्पष्ट है- चीजों को आदर दो, उन्हें दुरुस्त कर पुन: काम में लो और संवेदनशीलता के आधार पर जरूरतमंद लोगों के बीच उनका पुनर्वितरण करो।
 
पर्यावरण की समस्या ने भारत सहित पूरी दुनिया का ध्यान 'हिन्दू तत्वज्ञान' की ओर पुन: आकर्षित किया है। धरती हमारी मां है, हम इसकी संतान हैं। भोजन मात्र खाद्य पदार्थ नहीं, भगवान का प्रसाद है। जल वरुण देवता है। सूर्य आग का विशाल गोला नहीं, भगवान विष्णु का रूप है, जो जगत का पालन करते हैं। वायु उनपचास रूपों में प्रचलित देवता है। शब्द ब्रह्म है। समय महाकाल का वरदान है। अन्य जीव-जन्तु मां प्रकृति के कारण हमारे सहोदर हैं। पक्षी, पेड़, लता आदि मां के पवित्र श्रृंगार साधन हैं। 'वन' शब्द जीवन से जुड़ा हुआ है। हमारे प्रत्येक देवी-देवता के साथ कोई पशु-पक्षी जरूर है।
 
तृण, वनस्पति, लता और वृक्षों के साथ भारतीयों का हजारों वर्षों से प्रगाढ़ प्रेम रहा है, क्योंकि वे अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, मूल, छाल, काष्ठ, गंध, दूध, गोंद, भस्म, गुठली और कोमल अंकुर से सभी प्राणियों को सुख पहुंचाते हैं। वेद व्यास कहते हैं- एक वृक्ष 10 पुत्रों से बढ़कर है। पूत कपूत हो सकता है, लेकिन वृक्ष कपूत नहीं होता। हमारा विकास ऐसा हो कि धरती पर हरियाली की चादर बिछा दें और फैक्टरियां ऐसी बनाएं कि उनकी छतों पर मोर नाच सकें। शिवम् अर्थात सुमंगलमय ज्ञान और विज्ञान पर आधारित टेक्नोलॉजी को भस्मासुरी प्रवृ‍त्तियां छोड़ देनी चाहिए।
 
प्रदूषण को भयानक संकट की सीमा तक ले जाने वाली उपभोग और उत्पादन शैली पर पुनर्विचार जरूरी है। यदि ऐसा नहीं किया तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की वही मूर्खता करेंगे।
 
 

 


प्रकृति अनादि और अनंत है। परमात्मा ने उसके माध्यम से सृष्टि की रचना की। बहुत बाद में जाकर प्रकृति ने मनुष्य को अवतर‍ित किया, लेकिन अपनी अनुपम भेंट 'मानवीय मस्तिष्क' से उसको सुशोभित किया। उसको संवेदनशील हृदय दिया और अद्भुत कौशल वाले हाथ को 10 अंगुलियां दीं। 
 
उसकी रीढ़ की हड्डी सीधी है और पैरों में गजब की गति है। उसकी जिह्वा में गन्ने से ज्यादा मिठास रख दी। उन्नत आत्मा का रूप धारण कर परमात्मा स्वयं हमारे अंदर बैठ गया। इन सभी का सच्चा सदुपयोग ही प्रगति है।
 
मानव भ्रूण तो 9 माह बाद अपनी मां के गर्भनाल से अलग हो जाता है, परंतु हम सभी प्राणी प्रकृति की डोर से हर पल बंधे रहते हैं। प्रकृति हमारे प्राणों की रक्षा करती है। हम अपने कर्तव्य यज्ञ द्वारा उसकी उपासना करें। इसकी सेवा करें, संहार नहीं।
 
मछलियां पानी से विद्रोह कर कहां जाएंगी? प्रकृति की समझ बढ़ाएं। उससे आशीर्वाद लें। उसके समीप जाएं। उसके प्रति कृतज्ञ रहें। उसकी अन्य रचनाओं से मैत्री स्‍थापित करें। स्वाद, श्रृंगार, फैशन और सुगंध के लिए अन्य प्राणियों की हत्या न करें। चिड़िया जो पास रहेगी, तो जीवन की आस रहेगी।
 
हम सभी सही सोच, सादगी और संयम द्वारा प्रकृति का उपकार मानते हुए वैज्ञानिक प्रगति से लाभान्वित हों। समग्र और संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं।
 
ईशावास्पोपनिषद् में कहा गया है- ईश्वर को साथ में रखते हुए त्यागपूर्वक भोगते रहें। भोग्य पदार्थ अर्थात धन किसका है! इसमें आसक्त मत होओ। इन दो पंक्तियों में हमारी अधिकांश समस्याओं का उपचार आ जाता है।
 
(लेख प्रसिद्ध व्यक्तित्व विकास विशेषज्ञ और विचारक हैं।)

साभार- देवपुत्र 

 
 
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