पेड़ की पुकार पर कविता : मुझे मत काटो...

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- डॉ. सत्यकाम पहाड़‍िया
 

 

 
अरे भाई!
क्या करते हो ये?
अभी मैं जीवित हूं,
मेरे भी प्राण हैं।
तुम सब की तरह
मैं श्वासोच्‍छवास करता हूं।
और अपना आकार बढ़ाता हूं।
 
प्रकृति के माध्यम से
जीवन की धुरी को
संतुलित बनाता हूं।
तुम्हारी छोड़ी हुई श्वासों से
मैं जिंदा रहता हूं।
अपनी उच्‍छवास से मैं,
तुम्हें जीवनदान देता हूं।
 
पर हां, 
रहता अवश्य हूं
इस बियाबान जंगल में
अपने सभी साथियों
और सहयोगियों के साथ
जो ये सब तुम्हारी ही तरह
खाते-पीते-सोते
रोते और गाते हैं।
जीवन की खुशियों को
तुम्हारी तरह मनाते हैं।
 
मत काटो भाई!
मेरी बाहों को मत काटो।
मोटी-पतली जंघाओं को,
नन्हे-मुन्ने अंकुरों को
और
लहलहाती पत्तियों को
मत काटो।
चोट लगने पर
मुझे भी दर्द होता है।
मेरा पूरा गात
विचलित हो उठता है।
मेरे भाइयों को मत काटो।
 
तुम्हारी हर चोट पर
मेरे दिल की कसक से
पीर का नीर
शरीर की आंखों से
अविरल बह चलता है।
अस्तु,
मत काटो भाई
मुझे मत काटो।
 
श्वासोच्‍छवास : श्वास लेना, छोड़ना
उच्‍छवास : छोड़ी गई श्वास

साभार- देवपुत्र 


 
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