पर्यावरण पर कविता : ताकि नदी-पोखरे जिंदा रह सकें...

राकेशधर द्विवेदी
अपने छुटपने में अपनी दादी के साथ
नदी के तट पर आया था
वहां दहाड़ खाती, कोलाहल करती नदी थी
निर्जन-सा घाट-तट था, कुछ नावें थीं।
कुछ अशिक्षित नाविक और मछुआरे थे
 
अपने यौवनकाल में,
फिर उसी नदी के तट पर आया
अपनी जननी 'मां' के साथ
घर अब पक्का हो गया था
नदी अब पतली हो गई थी
लगा जैसे डाइटिंग कर रही हो।
 
गाड़ियों का धुआं बढ़ गया था
नदी का तट कुछ सहमा-सा था
मौन हो अपनी पीड़ा को सह रहा था
कुछ कहने की चाह में मौन था।
 
आज तीस वर्षों बाद,
फिर उसी नदी के तट पर आया
अपनी पत्नी के साथ था
यहां पर लाल पत्थरों से
सजा हुआ घाट था
दूर-दूर तक सुंदर रोशनी के नजारे हैं
 
दूर तक फैले हुए बतियाते हुए
प्रेमी युगलों के समूह हैं
कुछ आइसक्रीम के डिब्बे हैं
कुछ कैडबरीज के रैपर हैं।
 
गाड़ियों की लंबी कतारें भी हैं
बहुत कोलाहल है, धुआं है
नदी अब सिमटकर, सहमकर
नाले में तब्दील हो गई है।
 
शायद वेंटीलेटर पर है, 
अपनी अंतिम सांस को लेते हुए
जैसे कह रही है, तुम्हें यदि नदी, पोखरों को
बचाना है, तो उसके असली स्वरूप को लाना होगा
उसे फिर से यौवन का रूप वापस करना होगा
फिर से सुनो, सुनते जाओ नदी, पोखरों को बचाना होगा
ताकि नदी-पोखरे जिंदा रह सकें। 
 
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