दोनों ही गुरु पद्मसंभव के परम भक्त थे। इनके जन्म के समय बहुत बड़े समारोह का आयोजन हुआ था। साथ ही लामा डांस और घनचक्र समारोह का आयोजन भी हुआ था। चार साल की उम्र में इनको ग्यालवांग द्रुकपा के 11वें अवतार के रूप में दार्जिलिंग के मुख्य मठ ले जाया गया था।
हालांकि इन्हें यह याद नहीं कि क्यों उनको वहां ले जाया गया था, मगर वे वहां पहुंचकर काफी खुश थे। छह साल की उम्र में ही ग्यालवांग ने बौद्ध आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करना शुरू कर दिया और 13 वर्ष की आयु पूरी होते-होते उन्होंने सभी तरह की शिक्षा अर्जित कर ली। जिग्मे के अनुसार 5 से 13 वर्ष के बीच का समय काफी मुश्किलों भरा रहा। इस दौरान उन्होंने शिक्षा तथा जीवन की सारी विद्याएं सीखीं।
शिक्षा समाप्ति के बाद ग्यालवांग को गुरु ने निर्देश दिया कि तुमने जो कुछ भी सीखा है उसे पूरी दुनिया को बताओ और उनका मार्गदर्शन करो। गुरु जब अपने जीवन के आखिरी क्षण में थे तो उन्होंने जिग्मे पद्मा को एक पत्र सौंपा, इसे पढ़कर उन्हें आनंद की अनुभूति हुई।
इसके बाद जिग्मे पद्मा बौद्ध भिक्षुओं और अपने अनुयायियों को उपदेश व मार्गदर्शन देने लगे। ग्यालवांग का मानना है कि अध्यात्म हमारे लिए प्रामाणिक आंख है और हम ब्रह्मांड में जो कुछ भी देखते है वही हमारी सेवा का मुख्य अंश भी है। जहां भगवान हैं वहां दानव भी होंगे।