स्त्री मां होती है पर पुरुष पिता बनते हैं,
बहुत धीमे, गढ़े जाते हैं, समय की आंच पर...
कांपते सख्त हाथों में नन्हें जीव को लिए, नया कोरा पिता
सृष्टि का सबसे सुकुमार हृदय है....
बच्चे के लिए रोटी कमाने निकला पिता
सबसे साहसी योद्धा,
और अपनी जरूरत छोड़ बच्चे की जिद पूरी करता पिता
सबसे आनंदित बैरागी
ऐसे सहृदय, साहसी और आनंदित पुरुषों में
जन्मते हैं पिता
फिर तिनका-तिनका ख्वाहिशों और रेशा-रेशा ख्वाबों से
बुनते हैं एक नीड़, अपनों के लिए....
अपने घोंसले को ताप और तूफ़ान से बचाते पिता
जाने कब खुद तब्दील हो जाते हैं, वटवृक्ष में....
जिसकी कठोर विराटता तले छुप जाती है, सारी नमी
और सिर्फ गुस्से में व्यक्त होती है फ़िक्र....
बच्चों के जीवन-प्रवाह में वे रह जाते हैं, जैसे तटबंध
विध्वंसक उफानों को नियंत्रित करते...
एक दिन सारी जिम्मेदारियां निभा वे लौटते हैं,
उस छत के नीचे, जहां उनके नाम का कोई कमरा नहीं होता....
तलाशते हैं, बरामदे में पड़ी कोई आराम कुर्सी
या दालान में रखा तख़्त
जहां से वे अपने सिमटते साम्राज्य को देखते हैं,
संन्यासी जैसी तटस्थ विरक्तता के साथ....
झुकती कमर, धुंधलाती नजर और कांपती आवाज में
अब वे पराधीनता से पूर्व निर्वाण की इच्छा जताते हैं,
लेकिन..... जब चरमराती है कोई दीवार या हिलने लगती है छत
तो वटवृक्ष फिर सारी शक्ति समेट उठ खड़ा होता है,
मजबूत आधारस्तंभ बनकर....
थाम लेता है अपनी अनुभवी भुजाओं में
लड़खड़ाती जिजीविषा को....
क्योंकि पिता कभी बूढ़े नहीं होते
क्योंकि पिता कोई व्यक्ति नहीं
पिता हिम्मत है, पिता ऊर्जा है,
पिता मान है, पिता आभार है....