महानगरीय सभ्यता के युवा शायद सहमत न हों मगर वास्तविकता यह है कि उनकी 'मित्रता' की अवधारणा और वास्तविक 'मित्रता' की अवधारणा में बुनियादी फर्क है। सायबर कैफे से उपजी यह पीढ़ी इंटरनेट पर चैटिंग, डिस्को, बार और फाइव स्टार होटलों की देर रात खत्म होनेवाली पार्टियों में साथ-साथ उठने-बैठने, घूमने और साथ-साथ 'वीक-एंड' मनाने भर को ही 'दोस्ती' समझती है। इसीलिए इन्हें स्वयं पता नहीं होता कि ये सफर कब, कहाँ और कैसे यूँ ही छोटी-सी बात पर खत्म हो जाएगा।
' दुआ क्या थी जहन में ये तो याद नहीं बस दो हथेलियाँ थीं, जुड़ी आपस में... जिनमें से एक मेरी थी और एक तुम्हारी...।'
जब आपकी हथेली के साथ किसी और की हथेली जुड़ी हो तो स्वतः ही इतना कुछ मिल जाता है कि उस सुख, उस अनुभूति के समक्ष यह याद ही नहीं आता कि दुआ क्या थी? हो भी क्या सकती है? इसके सिवाय कि ये साथ हमेशा बना रहे। ये हथेलियाँ कभी विलग न हों। इन दो हथेलियों की लकीरों में जो संसार समाहित है, वह इस स्वार्थी लोक से सर्वथा भिन्न है और इस दुनिया के बाशिंदे संसार के सर्वाधिक धनी और खुशकिस्मत।
इंसान जब जन्म लेता है तब उसे स्वयं नहीं पता होता कि वह किस जाति, धर्म, कुल, संप्रदाय या प्रांत का हिस्सा बनने जा रहा है। अपने जन्म के साथ ही वह माँ की कोख से अपने साथ लाता है 'रिश्ते', 'खून के रिश्ते' जिन्हें वह चाहे तो भी बदल नहीं सकता, बना नहीं पाता, मिटा नहीं पाता।
ये रिश्ते बँधे होते हैं मर्यादाओं, परंपराओं और परिस्थितियों की जंजीरों से। शायद यही कारण है कि लाख अच्छा वातावरण और परिवेश होने के बावजूद थोड़ा-सा भी स्वविवेक जागते ही हर व्यक्ति एक 'साथ' की आकांक्षा में एक नए और अनजाने सफर पर निकल पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई नदी अपने उद्गम स्थल से निकलते ही पूरे उफान और वेग के साथ बह पड़ती है। बँधनाकोई नहीं चाहता। हर इंसान की सहज प्रवृत्ति होती है मुक्ति की चाह, अभिव्यक्ति की इच्छा और यहीं से प्रारंभ होता है एक अच्छे साथी की खोज का सिलसिला।
हम सभी अपने 'स्व' को अभिव्यक्त करना चाहते हैं। अपने व्यक्तित्व को, अपनी आत्मा को निराकृत करना चाहते हैं और इसीलिए हमें जरूरत होती है एक ऐसे व्यक्ति की जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ हमारी अनुभूतियों का साक्षी बने, जो पूरी करुणा के साथ हमारी पीड़ा व दुःख के गहनतम क्षणों को हमारे साथ-साथ भोगे, जिसका स्नेह ऐसा हो कि जब वह बरसे तो मन की धरती से मुस्कुराहटों की कोपलें फूट पड़ें और जो हमारी भूलों पर आवरण न डालते हुए हमें आईना दिखाने के बाद स्वयं बाँहें पसार उनमें समा जाने का आमंत्रण दें।
एक ऐसा साथ जो पूजा की तरह पवित्र व सात्विक हो और सर्वथा निर्विकार हो। ऐसा अपनत्व जो मन की गहराइयों को छूकर हमारी धमनी और शिराओं में हमें महसूस हो और हमारी हर धड़कन के साथ स्पंदित हो... यकीनन ये सब भावना के आवेग से उपजे शब्द प्रतीत हो सकते हैं, मगर हर उस व्यक्ति को जिसकी जिंदगी में कोई सच्चा 'मित्र' रहा हो, उसे यह अपनी ही बात लगेगी।
खलील जिब्रान ने कहा है- 'एक सच्चा मित्र आपके अभावों की पूर्ति है।' यकीनन इस द्वंद्व और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के मिलते हैं। तो वह सिर्फ इस दोस्ती के दायरे में ही। यही वजह है कि शायद ही संसार में ऐसा कोई प्राणी हो जिसका कोई मित्र न हो या कभी न रहा हो।
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हाँ यह अवश्य है कि आज के भौतिकवादी, उपभोक्तावादी युग में हम अपना 'स्व' पता नहीं किस कोने में दबा-छुपा अपनी ही अंतर आत्मा से नजरें चुरा इस मशीनी दौर का एक पुर्जा मात्र बने हुए हैं। यंत्रवत जीवन शैली में जिंदा है, मगर जिंदा होने और जीवन जीने में वैसा ही फर्क है जैसा माँ के हाथ की चपाती और फाइव स्टार की रोटियों में, एक में तृप्ति का अहसास है, तो दूसरे में भूख भर मिटाने की मजबूरी... गजल की वो पंक्तियाँ हैं न...
' हम दोस्ती, एहसान, वफा भूल गए हैं, जिंदा तो हैं, जीने की अदा भूल गए हैं।'
जिंदगी की ऊहापोह और उलझनों में यथार्थ के पुल पर जब चले तो भावनाओं के सेतु पीछे छूट गए। फिर भी कभी हृदय के बंद गवाक्षों में झाँकें तो वह संसार ज्यों का त्यों नजर आता है, मगर रुकने का समय नहीं रहा। अचानक रुक भी गए तो 'एक्सीडेंट' का खतरा, इसीलिए एकठंडी आह और कसक के साथ हम सब चले जा रहे हैं, अपने कंधों पर अपने-अपने सलीब उठाए।
महानगरीय सभ्यता के युवा शायद सहमत न हों मगर वास्तविकता यह है कि उनकी 'मित्रता' की अवधारणा और वास्तविक 'मित्रता' की अवधारणा में बुनियादी फर्क है। सायबर कैफे से उपजी यह पीढ़ी इंटरनेट पर चैटिंग, डिस्को, बार और फाइव स्टार होटलों की देर रात खत्म होने वाली पार्टियों में साथ-साथ उठने-बैठने, घूमने और साथ-साथ 'वीक-एंड' मनाने भर को ही 'दोस्ती' समझती है।
इसीलिए इन्हें स्वयं पता नहीं होता कि ये सफर कब, कहाँ और कैसे यूँ ही छोटी-सी बात पर खत्म हो जाएगा। वस्तुतः इनकी दोस्ती, स्नेह, भावना, विचारधारा या अहसास की धरती से अंकुरित नहीं होती, अपितु इसकी नींव जरूरतों की पूर्ति पर टिकी होती है। इसीलिए न ये दोस्त को समझते हैं, न दोस्ती को। मगर सच्ची 'मित्रता' वह तो दुनिया के सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है। यही वजह है कि इसमें उम्र, धर्म, जाति जैसे क्षेपक कभी नहीं लग पाते।
यह आस्था और विश्वास का वह अंकुर होती है जो एक बार हृदय में प्रस्फुटित हुआ तो ताउम्र जीवन को सुरभित और सुवासित करता है। इसकी महक आपके व्यक्तित्व और रूह में रच-बस जाती है, इसीलिए परोक्षतः साथ न होने पर भी आपके मित्र की मित्रता सदैव आपके साथ-साथ चलती है।
ऐसा साथ परिवार में मिलना मुश्किल है। कारण भी स्पष्ट है कि पारिवारिक रिश्ते 'निरपेक्ष' नहीं रह पाते। उनके पीछे एक अलग पृष्ठभूमि होती है जो बाधक न भी हो तो भी मित्रता की कसौटी पर सध नहीं पाती, क्योंकि सबके अपने-अपने विचार और मूल्य कहीं न कहीं आड़े ही आ जाते हैं। मित्रता भी वहीं हो पाती है या टिक पाती है, जहाँ कोई दुराग्रह, पूर्वाग्रह न हो।
' दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला', दोस्ती अथाह सागर की मानिंद है। उथले पानी में सतह पर तैरेंगे तो थकान के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। इसकी थाह लो, इसमें जितने गहरे उतरोगे उतने ही सुंदर मोती और सीपियाँ हासिल होंगी।
मित्रता की पहली शर्त है- 'आपसी समझ' चाहे आपके चारों ओर दोस्तों का सैलाब उमड़ रहा हो मगर उनमें से कोई आपको 'समझ' नहीं पाए आपको आपके वास्तविक रूप में जो आज है उस रूप में स्वीकार न करपाए आपकी कमजोरियों के साथ, तो ऐसे सैलाब के समक्ष कोई एक 'मित्र' जो पूरी शिद्दत के साथ आपको समझे, आपको स्वीकारे वह ज्यादा श्रेयस्कर है।
ऐसा ही दोस्त आपको प्रेरणा तथा संबल दे सकता है। हाँ में हाँ मिलाने वाला आपका मित्र नहीं होगा। हकीकत अक्सरकड़वी होती है मगर आपका सच्चा दोस्त वही है जो आपको गलत होने पर डाँटकर यह कह सके कि 'यह सही नहीं है।'
मित्रता का शिल्प विश्वास से बना होता है और यह विश्वास इतना कमजोर कतई नहीं होता कि छोटे-छोटे झटके उसे बिखेर दें। सही मित्रता जीवन का प्रकाश पुंज होती है, साथ न रहने पर भी उसकी यादें आपकी राहों को रोशन करती हैं। इसलिए मैत्री पर्व के सुखद अवसर पर यही कामना करते हैं कि दुनिया के तमाम दोस्तों की हथेलियाँ जुड़ी रहें और जहाँ मित्रता का सूर्य प्रकाशवान हो, ईश्वर करे वहाँ हम भी हों।