एक दोस्ती ऐसी भी

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नेह ा मित्त ल

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वर्ष 2002 में जब गुजरात में दंगे हुए थे तब असंख्य लोग मारे गए थे। लोगों में मतभेद, द्वेष, घृणा जैसी भावनाएँ पनप रही थीं। पूरा समाज इस आग में जल रहा था। चीखने-चिल्लाने की आवाज चारों दिशाओं में गूँज रही थी। सांप्रदायिक दंगे समाप्त होने के आसार नहीं दिख रहे थे। चार महीने से चल रही इस हिंसा की आग में लाखों लोग बेघर हो गए थे तथा कई बच्चे अनाथ हो गए थे।

ऐसी दहशत रेहाना बी ने 78 साल तक कभी देखी नहीं थी। अँधेरा होते ही अम्मा झोपड़ी से बाहर निकल जाती थी। वह राह में भूख-प्यास से रोते हुए नन्हे बच्चों को देखती थी। कुछ दिन बाद वे बच्चे कभी भी बाहर नज़र नहीं आते थे। न ही माता-पिता उन्हें ढूँढते, न ही दहशतकारियों के हाथ वे मासूम बच्चे शिकार होते। क्योंकि अम्मा ने उन बच्चों को सुरक्षित अपने घर रख लिया था। इन बच्चों के माता-पिता की निर्ममता से हत्या की गई थी।

चिंता की रेखाएँ अम्मा के चेहरे पर झलक रही थीं। वह समझ नहीं पा रही थी कि इन बच्चों को कहाँ छिपाकर रखें। घर में एक दाना भी नहीं था। अम्मा सोच रही थी कि अब इन बच्चों का वह किस प्रकार से भरण-पोषण करेगी। वृद्ध अवस्था में उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे किसी से भोजन माँग सके।

झोपड़ी के पास कल्पना रहती थी। दोनों धर्म के लोग एक ही छत के नीचे परस्पर रहते थे, परंतु एक-दूसरे से कभी बात नहीं किया करते थे। कल्पना अपने पति अशोक के साथ झोपड़ी में रहती थी। बाहर चल रही हिंसक वारदातों को देखकर वह भयभीत हो उठी थी। बात उस समय की है जब एक बार बच्चों के रोने की आवाज सुन कल्पना उठकर बैठ गई थी। वह सोच रही थी कि आवाज कहाँ से आ रही थी। रात के समय जब किवाड़ खुलने की आवाज आई तथा बच्चे के सिसकने की धीमी आवाज सुनाई तो कल्पना ने बाहर झाँक कर देखा कि रेहाना एक हाथ में लाठी का सहारा लेकर चल रही थी।

उन्हें दिलासा दे रही थी कि आज रात को वह उनके लिए भोजन लेकर ज़रूर आएगी। कल्पना सोच रही थी कि वृद्ध अवस्था में वह कहाँ से खाना लाएगी? कल्पना ने फैसला कर रेहाना बी को बुलाया था। अम्मा, अम्मा सुनो ठहर जाओ अम्मा। इस बात को सुनकर रीहान बाई के कदम ठिठुर गए। उसने सोचा कि क्या अब उसका रहस्य खुल गाएगा सबके सामने? क्या इन मासूम बच्चों को उससे छीन लिया जाएगा?

कुछ सोच-विचार कर उसने कदम आगे बढ़ाए ही थे कि कल्पना ने उनका हाथ थाम लिया था। अम्मा ने सोचा कि जिस पड़ोसन के साथ उसने सालों तक बात नहीं की थी, वह आज उसका हाथ थामे उसे रोक रही थी।

इससे पहले कि अम्मा कुछ कहती कल्पना बोल उठी कि अम्मा कहाँ जा रही हो इतनी रात को? रुक जाइए अम्मा। कल्पना उन्हें जल्द ही घर के अंदर ले गई। अम्मा की आँखों में आँसू आ गए। विवश होकर वह कहने लगी कि एक महीने से ऊपर हो गया था। उनका पोता लापता था, दंगों के दौरान कुछ लोग उसे बुलाकर ले गए। वह अभी तक घर वापस नहीं आया था। पता नहीं उसकी कैसी हालत होगी। उसे ढूँढने के लिए अँधेरे में बाहर निकलती तब इन बच्चों को बेबस और बेसहारा सड़क पर घूमते हुए देखती थी।

उससे रहा नहीं गया था। वह उन बच्चों को अपने साथ घर ले आई थी। घर में एक दाना नहीं था। उन्हें चिंता होने लगी थी कि अब वे उन बच्चों का भरण-पोषण कैसे करेगी।

कल्पना ने आगे बढ़कर कहा कि अम्मा चिंता मत करो हम तुम्हारे साथ हैं। उसने दो महीने के राशन से बच्चों का भरण-पोषण किया। उसने एक बार भी नहीं सोचा था कि वह किसकी मदद कर रही थी। एक अल्पसंख्यक वृद्ध महिला की। परंतु इस संकट की घड़ी में कल्पना ने धर्म के रिश्ते से अधिक एक दोस्ती के रिश्ते को निभाया था। एक तरफ वह बच्चों को खाना खिलाती तो दूसरी करफ अम्मा उन्हें कहानियाँ सुनाती। यदि राह में कोई अनाथ बच्चा रोता हुआ मिलता तो वे उसे घर ले आतीं।

चार महीने के बाद दहशत कम हो गई। शांति की स्थिति फिर से कायम हुई कल्पना एवं रेहाना बी ने मिलकर अनाथ आश्रम प्रारम्भ किया। बाद में इन बच्चों के लिए स्कूल खोल दिया। समाजसेवी संगठनों ने आकर उनकी सहायता की। क्या हम कभी सोच सकते हैं कि जब दो धर्म के लोग हिंसा की आग में दहशत फैला रहे हों तब दूसरी ओर दोनों धर्म की महिलाएँ एकजुट होकर शांति एवं जनकल्याण कर रही हों।

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