कुरसी उवाच

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- डॉ. पुष्पा चौरसिया
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दण्ड-भेद को जो अपनावे, आसानी से मुझको पावे।

कुछ को मैं चरणामृत देती, यह तो अपने घर की खेती।।

दोष मुझे तुम कभी न देना, मुझको क्या है लेना-देना?

जिसको भी स्वीकार किया है, उसका पूरा साथ दिया है।।

सभी ऐब मैं ढंकती जाऊं, मालिक को इज्जत दिलवाऊं।

जिस दिन तुमने पद को छोड़ा, फौरन मैंने मुखड़ा मोड़ा।।


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नया असामी ढूंढ निकालूं, अपने नव-मालिक को पालूं।

खेल सदा ऐसा ही चलता, कोई हंसता, हाथ मसलता।।

अंतहीन किस्सा है मेरा, जिसका ना हो कभी सवेरा।

लेकिन मेरी भी कुछ सुन लो, बात हृदय में थोड़ी गुन लो।।

बहुत हुआ अब खेल-तमाशा, पूर्ण करो जनता की आशा।

व्यर्थ मुझे बदनाम किया है, मैंने कुछ भी नहीं किया है।।

हुआ वही जो चाहें आका, नजर बचाकर डालें डाका।

इन सबको कहते हैं नेता, घर भरने के यही प्रणेता।।

नीतिपरक पहले थी सत्ता, अब तो घूस और है भत्ता।

गोरखधंधा कहीं नहीं था, जो भी होता बहुत सही था।।


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आज सभी ईमान गंवाएं, कांटे बोएं कांटे पाएं।

शांति न भौतिक सुख से आए, अमन-चैन को दूर भगाए।।

अभी समय है अलख जगाओ, देशभक्ति मन में उपजाओ।

इस धरती को स्वर्ग बनाओ, कुरसी का झगड़ा निपटाओ।।

कह 'पुष्पा' बन कुरसी-चेरा, झण्डा गाड़ लगाओ डेरा।

जो बांचे कुरसी चालीसा, व्यापै नहीं हवाला-मीसा।।

धन-बल-वैभव-दायिनी, मंगल-मूरतिरूप।

चमचों सहित विराजते, प्रजातंत्र के भूप। ।


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