हास्य व्यंग्य : काश! मैंने भी किया होता

Webdunia
शनिवार, 27 सितम्बर 2014 (15:02 IST)
- रामाजय 
 
काश! मैंने भी किया होता। अरे वो ही जो आजकल सब लड़के-लड़कियां करते हैं। मुआ प्यार और क्या। सुना है इसमें बड़ा मजा आता है। प्रेमी मनपसंद चीजें दिलवाता है। चाट-पकौड़ी जो कहो सब खिलाता है। सिनेमा भी दिखाता है। क्या कहूं मुझे तो लाज आती कहते हुए भी। घुमाने भी लेकर जाता है।
 
हाय-हाय कैसी मति मारी गई थी मेरी उस समय, जो इन बातों को मानना तो दूर, सुनती भी नहीं थी। कोई सहेली भी बात करती अपने बॉयफ्रेंड की तो उससे बोलना ही छोड़ देती थी। सोचती थी इन बातों को सुनना भी पाप है, बस दिन-रात किताबों में ही घुसी रहती थी। लेकिन मैं क्या करती और इसमें मेरा क्या दोष था। मैं तो बस मां-बाबूजी की बातें मानकर ही चलती थी कि पढ़ाई के बिना जिंदगी में कुछ नहीं होता।
 
लेकिन अब पता चला कि ये ही तो जिंदगी का मजा होता है। वो तो शादी के बाद पता चला कि ये क्या होता है। कितना रंगीन समय मैंने गंवा दिया बेकार ही। अब तो दिन-रात घुसे रहो चूल्हे में। गजभर लंबा घूंघट ओढ़ो, नहीं तो आफत आ जाती है। मेरा तो जी करता है दीवार पर अपना सर दे मारूं।
 
आज तो चार औरतों में भी बैठकर बात नहीं कर सकती। कैसे चटखारे ले-लेकर सब अपनी बातें बताती हैं कि किस के कितने दीवाने थे। किसने क्या क्या खाया। कहां घूमी। कौन सा सिनेमा देखा और मैं उस समय बगलें झांकती हूं। क्या बताऊं किसी को, मुझे तो उस समय कुछ पता ही नहीं था इन सब बातों का। अब क्या हो सकता। रोवो बैठकर। अपनी अक्ल कोसो कि पढ़ाई के सिवा कहीं और चलती ही नहीं थी।
 
सच कहूं तो अब कौन सी चलती है। नहीं तो ऐसे ही कोई कहानी न बना लेती। सहेलियों को भी सुनाती इन मरी किटी पार्टियों में। वाह कितना आनंद आता, जब सारी एकटक मुझे देखती मुंह फाड़कर। हाय-हाय मुझे तो उनकी शक्लों का सोचकर ही मजा आ रहा है। आंखें फट जाती सबकी, ये तो मुझे पक्का पता है। मिसेज मलहोत्रा की तो बोलती बंद हो जाती। वो ही सबसे ज्यादा टांग खींचती हैं मेरी। कैसी आग लगती है कलेजे में उन सबके ताने सुनकर।
 
अब तो कई बार जी करता है कि जरा एक बार मां को लेकर जाऊं किटी पार्टी में, तब जाकर उन्हें पता चलेगा मेरे दर्द का। कम से कम गांव में तो न ब्याहते। हाय-हाय अब क्या करूं? ये पप्पू के पापा भी कैसे बताते हैं कि उन पर कितनी लड़कियां दीवानी थीं।
 
कितनी आग लगती है कलेजे में उनकी बातें सुनकर, जब किसी न किसी बात पर सुनाते हैं कि मेरी तो अक्ल मारी गई थी, जो तुमसे शादी की। अगर रीता से की होती तो अहा कितने सलीके वाली थी वो और तुम क्या हो एक नंबर की फूहड़ जिसे रसोई और बच्चों के अलावा दुनिया का कुछ पता ही नहीं है। 
 
कैसी शक्ल होती है उनकी जब मुझे कोसते हुए कहते हैं कि जाने कौन से जंगल में पली हो, जो कुछ भी दुनिया का रंग-ढंग नहीं पता। मां-बाप ने कैसी पढ़ी-लिखी जाहिल से शादी करवा दी है।
 
मैं आंखों में आंसू भरे रसोई में आ जाती और मन में यही सोचती कि मां-बाप का कहना मानकर गलती की है क्या मैंने, जो 'फूहड़' जैसे नामों से पुकारा जाता है। उस वक्त भी जिंदगी का कोई मजा नहीं लिया और अब भी दिन-रात घर में ही खटती रहती हूं।
 
सास को गठिया है। ससुर दिनभर खांसने के सिवा कुछ नहीं करते और ऊपर से ये बच्चे। करूं भी तो क्या करूं? क्या इन सबको छोड़कर लिपस्टिक-पोडर थोपकर किटी पार्टियों में जाऊं। कभी-कभी मन में आता है कि काश! मैंने भी ये मुंहझौंसा प्यार किया होता तो ऐसी जली-कटी तो न सुनती। झट मुंह फाड़कर अपना भी बताती कुछ। मैं भी कोसती कि शादी के बाद क्या मिला ये चूल्हा और चार सूती साड़ियां कैसी शक्ल बनती इनकी तब। हाय-हाय सोचकर ही हंसी आ रही है।
 
मैं खुद को कोसती और जवाब देती कि कभी घुमाने लेकर गए हो, कभी सिनेमा दिखाया है, बस जब नई-नई शादी हुई थी तब की बातों को छोड़कर। कहती न जरा खाओ कसम और बताओ ये तो एक मैं ही हूं, जो तुम्हारी इतनी सी पगार में भी घर चला लेती हूं। तुम्हारी रीता होती न तो दो दिन में तुम्हें छोड़कर भाग जाती और अपनी किस्मत को रोते हुए कहती किसी का नाम लेकर कि मेरी भी उससे शादी होती तो रानी बनाकर रखता मुझे। ऐसे दिन-रात रसोई में न खटना पड़ता मुझे। इनकी तरह ठंडी सांसें भरती हाय-हाय कितना मजा आता तब।
 
अब तो सच में मुझे ये लटके-झटके नहीं आते तभी तो इतना सब करके भी दो टके की इज्जत नहीं है मेरी इनकी नजरों में और किटी पार्टी में मेरी जो खिल्ली उड़ती है, सो अलग से। हर जगह शर्म से मुंह छिपाना पड़ता है। सब कितनी हैरान होकर कहती हैं- 'क्या मिसेज व्यास आपका कोई बॉयफ्रेंड नहीं था' और पप्पू के पापा जब देखो तब ताना मारते है कि कोई स्टाइल होता तो तब कोई तुम्हें पूछता न। ये तो मैं हूं जो तुम जैसी जाहिल से काम चला रहा हूं। मन कितना रुंआसा हो जाता है ये सब सुनकर और अपनी फूहड़ अक्ल पर रोना भी आता है कि क्यों मैं इन सब जैसी नहीं। क्यों नहीं किया मैंने भी...!
 
लेकिन अब बुक्का फाड़कर रोने से क्या होगा। ये मेरे खयाली पुलावों का अब क्या फायदा। अब क्या कर सकती हूं सिवा माथा पीटने के। रोवो बैठकर अपनी अक्ल पर। जो न तब चलती थी इन सब बातों में, न अब चलती है। सच में घोड़े की अक्ल पाई है मैंने तभी तो ये सब बातें सुनती हुं।
 
काश! पप्पू के पापा को दो-चार तीर मैं भी मार सकती। काश! उन औरतों में बैठकर मैं भी शेखी बघार सकती लेकिन अब क्या करूं। जाकर खाना बनाऊं वरना वैसे ही मुझे नोचकर खा जाएंगे ये सब। क्या बच्चे और क्या बाप, सब एक जैसे हैं बातें सुनाने में। किसी को क्या कहूं, गलती तो मेरी है काश...! मैंने भी किया होता।
 
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