अब चलेगा थ्रीडी टीवी का जादू - भाग 3

राम यादव
सोमवार, 27 सितम्बर 2010 (17:10 IST)
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खास चश्मा चाहिए
त्र ि- आयामी डिजिटल टेलीविज़न जिस ख़ास चश्मे की माँग करता है, उसे शटर चश्मा कहा जाता है। आँखों को पूरी तरह ढक लेने वाले इस चश्मे में हर आँख के सामने LCD ( लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले) वाला एक लेंस होता है। टेलीविज़न स्क्रीन बहुत थोड़े-थोड़े समय के अंतर पर, बारी-बारी से, दाहिनी और बाँई आँख के लिए स्टीरियो तस्वीर का दाहिनी या बाँए ओर से लिया गया हिस्सा दिखाता है। स्क्रीन और चश्मे के बीच ऐसा तालमेल रहता है कि चश्मे के दोनों लेंसों वाले तरल क्रिस्टल उसी क्रम और उतने ही समय के लिए बारी-बारी से पारदर्शी या अपारदर्शी बन जाते हैं और दर्शक को सब कुछ त्र ि- आयामी प्रतीत होता है।

शटर चश्मे के लिए जरूरी है कि टेलीविजन-पर्दे पर प्रतिसेकंड 100 पिक्चर फ्रेम आएँ-जाएँ। इस तरह हर आँख के सामने से प्रति सेकंड 50 चित्र गुजरते हैं। इससे कम फ्रीक्वेंसी होने पर मस्तिष्क के लिए चित्रों का तारतम्य टूट सकता है और चित्रों के त्र ि- आयामी होने का आभास भंग हो सकता है। पाया गया है कि चलचित्रों के मामले में तो यह फ्रीक्वेंसी ठीक है, किंतु जब कोई चित्र बिल्कुल स्थिर हो, तो वह जुगजुगाता-सा लग सकता है। यह भी पाया गया है कि चित्रों के आने-जाने की फ्रीक्वेंसी जितनी ही कम होती है, आँखें उतना ही जल्दी थक जाती हैं। विशेषज्ञों का मत है कि प्रतिसेकंड 120 से 160 चित्रों की फ्र ीक्वेंसी सबसे आदर्श रहेगी।

टीवी पर नजर टिकाए रखना जरूरी
जर्मनी की एक इलेक्ट्रॉनिक पत्रिका सीटी ( c't) ने अपने नवीनतम अंक में लिखा है कि दर्शक की आँखें जैसे ही टीवी के पर्दे से कुछ परे हट जाती हैं, कुछेक शटर चश्मे जुगजुगाने लगते हैं। शायद ऐसा इसलिए है कि टेलीविज़न उन्हें इन्फ्रॉरेड (अवरक्त किरणों) द्वारा नियंत्रित करता है। इसी तरह कुछेक टीवी सेट जब तक गरम नहीं हो जाते, तब तक उनकी त्र ि- आयामी तकनीक भी सो रही लगती है।

बिना खास चश्मे के सच्ची त्रि-आयामी फ़िल्में बहुत धुंधली और अस्पष्ट लगेंगी। चश्मा जरूरी है, हालाँकि बर्लिन मेले के एक बंद कमरे में कुछ लोगों के सामने एक ऐसे टेलीविज़न का भी प्रदर्शन किया गया, जिस पर त्रि-आयामी फिल्म देखने के लिए कोई चश्मा नहीं चाहिए। बताया गया कि उसे बाज़ार में आने में अभी दस साल और लग सकते हैं।

नई तकनीक, नई उथल-पुथल
सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि अभी HDTV ही सब जगह नहीं पहुँच पाया है और अब उससे भी बढ़े-चढ़े त्रि-आयामी टेलीविजन के आ जाने से उपभोक्ता और व्यापारी ही नहीं, टेलीविजन प्रसारक भी असमंजस में पड़ गए हैं कि वे किसे प्राथमिकता दें। बाजार में काफी उथलपुथल मचने की आशंका है। HDTV के प्रचार-प्रसार पर लगे पैसे की वसूली खटाई में पड़ सकती है।

दूसरी ओर, बर्लिन के मेले में टीवी सेट के भीतर लगाए जा सकने वाले इस तरह के मोड्यूल या उस पर रखे जा सकने वाले सेट-टॉप-बॉक्स भी देखने में आए, जो इस समय के किसी फुल HDTV को 3 D टीवी में बदल सकते हैं और 200 से 300 यूरो (12000 से 18000 रूपये) तक महँगे होंगे।

इंटरनेट टेलीविजन यानी हाइब्रिड टीवी
बाजारी उथल पुथल की लहरों को एक और नवीनता और भी तेज बना सकती है। टेलीविजन और इंटरनेट का विलय हो रहा है। गूगल ने कहा है कि उसने एक ऐसा वेब ब्राउजर बनाया है, जो सबसे पहले सोनी के टेलीविजन सेटों और सेट-टॉप-बॉक्सों में लगाया जाएगा। क्रिसमस से पहले ही वह अमेरिका की दुकानों में आ जाएगा। उसकी मदद से इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री सीधे टेलीविजन पर भी देखी-सुनी जा सकेगी। कहने की आवश्यतकता नहीं कि अन्य नामी कंपनियाँ भी शीघ्र ही ऐसा ही करने जा रही हैं।

इंटरनेट और टेलीविज़न के इस मेल को 'हाइब्रिड टीवी' नाम दिया गया है। जर्मनी में भी क्रिसमस तक बिकने वाले 40 प्रतिशत टीवी सेट इटरनेट से जुड़ने लायक सेट होंगे। इंटरनेट पर उपलब्ध फिल्में या यूट्यूब के वीडियो देखने के लिए कंप्यूटर की जरूरत नहीं रह ज ा एगी। फेसबुक या ट्विटर के लिए भी कंप्यूटर को चालू नहीं करना पड़ेगा।

यहाँ तक कि एक दिन घर की सारी मशीनों को चालू-बंद करने या प्रोग्राम करने का काम टीवी के सामने बैठ कर रिमोट कंट्रोल से ही हो जाएगा। टीवी दिखाएगा कि ओवन में रखा चिकन कहाँ तक पका? बाहर कौन घंटी बजा रहा है? बच्चों के कमरों में क्या हो रहा है? स ोफ े से उठने की कोई जरूरत नहीं।

विडंबना यही है कि जब घर के भीतर भी चलना-फिरना बंद हो ज ा एगा, तब रक्तचाप और हृदयरोग का आना-जाना और बढ़ जाएगा। मधुमेह की बाढ़ आ जाएगी। रीढ़ और कमर का दर्द असह्य होने लगेगा।

जनसाधारण के लिए टीवी का मुख्य उपयोग अभी ज्ञान-विज्ञान के बदले मनोरंजन पाना और चैनल मालिकों का उद्देश्य मनोरंजन बेच कर पैसा कमाना है। घरेलू टेलीविजन चैनलों ने लोगों की ज्ञान-गंगा पहले ही इतनी सुखा दी है कि इंटरनेट टीवी से रही-सही बुद्धि भी जाती रहेगी। ( समाप् त)

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